गीतकार यश मालवीय की एक चर्चित पंक्ति है…‘‘हर अनुभव को गीत बनाने की जिद है।’’ रामनगीना मौर्य के संबंध में भी बेहिचक कहा जा सकता है कि वे हर अनुभव को ‘कहानी’ बनाने के लिये कृतसंकल्प हैं।’ उनके सभी कहानी-संग्रहों में आस-पास की घटनाओं, कुरूपताओं, विडम्बनाओं, संभावनाओं और सुखद-दुःखद अनुभूतियों को इस तरह कथात्मक रचाव दिया गया है कि कहानियांॅ विशेषतः मध्यवर्गीय जीवन का सिंहावलोकन और आत्मालोचन बन गई हैं।
नये कहानी संग्रह ‘आगे से फटा जूता’ की ‘लिखने का सुख’ कहानी में श्री मौर्य ने बच्चन साहब के बहाने अपने लेखन की मनोभूमि, कथ्य-चयन और रचना-प्रक्रिया को इन शब्दों में रेखांकित कर दिया है…‘‘अपने दिन भर के काम-काज के तमाम अनुभवों, उनसे उपजी विसंगतियों-विद्रूपताओं, विडंबनाओं भरी दिनचर्या को किसी कागज पर उकेरना या दैनन्दिन की डायरी में लिपिबद्ध किया जाना, तनाव-शैथिल्य का सर्वोत्कृष्ट उपाय है।……बार-बार पढ़ते, दुरूस्त करते, बेहतर रचना के सृजन का एहसास भी होता ही है।’’
‘लिखने का सुख’ कहानी में ही एक कविता का संदर्भ है, ‘मरी नहीं है संवेदना अभी’ यह कविता, समग्र कहानी-संग्रह के ‘विजन’ को व्यंजित करती है। संवेदना की उपस्थिति के कारण ही ‘ग्राहक की दुविधा’ कहानी में नैरेटर को गरीब सब्जी वाली से शिमला मिर्च न खरीदने का अफसोस होता है। बच्चन साहब के मन में ‘किसी की मदद’ न कर पाने का क्षणिक मलाल होता है।…‘पता नहीं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है’…(ग्राहक देवता)। यह एहसास किसी कठकरेजी और हिसाबी-किताबी आदमी को नहीं हो सकता।
‘पंचराहे पर’ कहानी में ‘पूरे परिदृश्य पर गहन नजर रखते हुए घटना-क्रम का गंभीरता से पड़ताल’ करते हुए हर विसंगति पर तार्किक टिप्पणी करने वाले सज्जन जब ट्रैफिक-कर्मी को एक बुजुर्ग को सड़क पार कराते देखते हैं, तो गमगीन हो जाते हैं। वे एक किस्म के पश्चात्ताप से भर उठते हैं।…‘‘वो छड़ी लिये अंकल जी, जो सड़क पार करने की कोशिश कर रहे थे, उन्हें सड़क पार करने में हम भी तो मदद कर सकते थें?’’ यहाँ कहानीकार ने बड़ी सहजता से अपनी सकारात्मक सोच संश्लिष्ट कर दिया है।
‘सांझ-संवेरा’ का एक छोटा सा वाक्य दाम्पत्य की जटिलताओं का समाधान बन गया है। पत्नी ने पूछा है कि कैसे निभेगा हमारा साथ? पति का उत्तर है…‘‘यूँ ही रूठते-मनाते।’’ ‘उठ! मेरी जान’ कहानी में कैफी आजमी की नज्म ‘औरत’ और ‘लिखने का सुख’ में फिल्मी गीतों की पंक्तियां जीवट और जिजीविषा का संदेश देती हैं। श्री मौर्य की कहानियों पर डॉ0 रेशमी पाण्डा मुखर्जी कीे इस राय को ये कहानियां चरितार्थ करती हैं। ‘‘ऊपर से अतिसामान्य विषय पर केन्द्रित दिखने पर भी ये कहानियों अक्सर भीतर से गंभीर मुद्दे को छू लेती हैं।’’
वैसे श्री मौर्य स्थितियों-मनःस्थितियों के चितेरे हैं। उनकी कहानियों में ‘कथ्य’ ही प्रमुख है, लेकिन शीर्षक कहानी ‘आगे से फटा जूता’, में उनकी कथन-चातुरी और शिल्प-सजगता देखते बनती है। एक जूते को आधार बनाकर इस कहानी की गझिन बुनावट में अनेक विसंगतियां सहज संश्लिष्ट हैं। साहित्य-क्षेत्र के कदाचार पर कहानी में जहां-तहां व्यंग्यात्मक प्रहार है। अपनी एक कहानी (रोटेशन सिस्टम से) में श्री मौर्य ने कुर्सियों की बात-चीत सुनी थी। इस कहानी में जूते बतिया रहे हैं। यह कहानी, कहानीकार के सुपठित होने की साक्षी है। दुष्यन्त, धूमिल, नागार्जुन की कविताओं, विंसेट वान गॉग की पेंटिंग, ‘प्रेमचंद के फटे जूते’, एल्योसा के जूतों, सत्यजीत रे की फिल्म ‘‘गोपी ग्याने बाघा बाने’’ के जादुई जूतों आदि से परिचित हिन्दी कहानीकार कम ही होंगे। लेकिन बहुज्ञता से कहानी की संप्रेषणीयता आहत नहीं हुई है। व्यंग्य का हस्तक्षेप न केवल इस कहानी अपितु ‘परसोना नॉन ग्राटा’, ‘गड्ढा’ आदि कहानियों में भी सार्थक और मुखर हैै।
श्री मौर्य का ‘सृजनधर्मी-दिमाग’ कहानी की बुनावट में कहानीकार, ‘कठकरेजी’, ‘ओरहन’, ‘चिरौरी’, ‘पनहिया’, ‘ठनठनगोपाल’ जैसे क्षेत्रीय शब्दों के साथ ‘हस्बेमामूल’, ‘अफसुर्दगी’, जैसे उर्दू शब्दों को भी भली-भाँति खपा सका है। इनसे कहानी-संग्रह अधिक पठनीय और ग्राह्य बन सका है। यह संग्रह भी कहानी विधा के प्रति श्री मौर्य के समर्पण का प्रमाण है।
समीक्षक– डॉ.. वेदप्रकाश अमिताभ
कहानी संग्रह -‘आगे से फटा जूता’
लेखक- रामनगीना मौर्य,
प्रकाशक- रश्मि प्रकाशन, कृष्णानगर, लखनऊ,
प्रथम संस्करण-2022, मूल्य-220-पेज-132,