जनसंख्या विस्फोट
तीव्र गति से घट रहे संसाधन सर्वत्र,
जनसंख्या वृद्धि करे यत्र तत्र सर्वत्र।
यत्र तत्र सर्वत्र शहर हैं भरे ठसाठस,
गांवों में भी कष्ट झेलते हैं जन-मानस।
खतरे में है जीव और ख़तरे में कुदरत,
खेत हुए अदृश्य, हो रहीं दृश्य इमारत।
वृक्ष काटकर बना रहे हैं कागज पत्तर,
प्राणवायु घट रही हो रहा जीवन बद्तर।
कुदरत भी हैरान देखकर जन की वृद्धि,
कैसे करूं प्रदान सभी को सुख समृद्धि।
कहें कवि प्रदीप काम की भारी किल्लत,
सुखी नहीं रह पाए,सही आजीवन जिल्लत।
वंशवृद्धि की चाह में, पुत्री हो गई सात,
पुत्र ही वंश चलाएगा,सोच रहे दिन-रात।
सोच रहे दिन-रात कर रहे हैं मनमानी,
है पुत्री पुत्र समान, बात ना इतनी जानी।
पोषण ना मिल सके अगर हों ज्यादा बच्चे,
आमदनी घट रही, बढ़े गृहस्थी के खरचे।
दो बच्चे ही रखें आओ संकल्प करें हम,
जीवन भी समृद्ध,और जनसंख्या हो कम।
स्वरचित एवं मौलिक रचना ,
प्रदीप शर्मा।