कविता

किस्मत का ताला

किस्मत के हैं खेल निराला
कभी खुलता है कभी लगे ताला
कोई नहीं जानता है      जग में
किसके भाग्य लिखा सुख रब ने
पर मानव  को कर्म है      करना
हाथों की रेखा पर भरोसा ना करना
ये तो समय समय पर बदलता
मिहनत की चाबी से भाग्य खुलता
जिसने भी तन से बहाया है पसीना
उसको मंजिल दिया है ये जमाना
मिटजाती है मंजिल की दुरीयॉ
मिट जाती है जग में मजबूरियॉ
ख्वाब तब होता है सब पूरा
जब जिद्द ना होता है     अधूरा
मंजिल खड़ा है उस विन्दू पर
जो मिलता है श्रम के बल पर
मिहनत को हथियार बना लो
अपनी किस्मत को लिखवा लो
कोई नहीं रोक पायेगा तेरी राहें
देव दानव सब है यहाँ पाये

— उदय किशोर साह

उदय किशोर साह

पत्रकार, दैनिक भास्कर जयपुर बाँका मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार मो.-9546115088