सिंहासन खाली करो कि हिन्दी और भारतीय भाषाएं आती हैं
जब से चिकित्सा शिक्षा को हिन्दी माध्यम से दिए जाने की घोषणा हुई है, तभी से अभी तक कुल मिलाकर लगभग डेढ़ सौ चिकित्सा शिक्षकों, चिकित्सकों, पत्रकार साथियों और गैर चिकित्सीय विद्वानों तथा विद्यार्थियों ने मुझसे बातचीत में सरकार के इस कदम की आलोचना एवं घोर निन्दा की है, उपहास उड़ाया है, आत्मघाती कहा है, 19 वीं सदी में ले जाने की बात कही है, यह भी कहा है कि फिर तो संस्कृत में ही दे दी जाना चाहिए, जब पीछे धकेल रहे हो तो पूरा ही धकेल दो, यहाँ तक कि भावी चिकित्सकों की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाए गएँ हैं, विश्व पटल पर उनकी काल्पनिक अयोग्यताओं का भी उल्लेख किया गया है I इसके अतिरिक्त भी न जाने क्या-क्या नहीं कहा गया है I मोदीजी, आरएसएस और अन्य इससे जुड़े व्यक्तियों के लिए अपशब्दों का भी प्रयोग किया गया I अभी भी सिलसिला अनवरत है I
इससे मैं बहुत उद्विग्न हूँ, व्यथित हूँ, दुखी हूँ, हतप्रभ हूँ, चिन्तित भी हूँ और आक्रोशित भी हूँ, मेरा आक्रोश सात्विक है I
इस स्थिति से उत्तेजित, प्रेरित होकर अत्यन्त ही विनम्रता के साथ मैं सभी सुधिजनों के संज्ञान में कुछ तथ्य लाने को विवश हुआ हूँ I
तुर्की की स्वतन्त्रता और उनकी भाषा
जब तुर्की स्वतन्त्र हुआ तब वहां के बादशाह कमाल पाशा ने अपने अधीनस्थों से कहा था कि अब सारा कामकाज तुर्की में होगा,तो वे बोलें थे कि ऐसा करने के लिए कम से कम दस वर्ष लगेंगे I बादशाह ने उत्तर दिया ठीक है, कोई बात नहीं, यही समझ लीजिये की आज उस दस वर्ष का अन्तिम 365 वां दिन है I इस आदेश के तहत दूसरे ही दिन से तुर्की भाषा पूर्णरूपेण अस्तित्व में आ गई I
महात्मा गांधी का उद्घोष और भाषाई पराधीनता के अन्त का शुभारम्भ
स्वराज, सुराज और स्वदेशी के प्रचारक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यह तीव्र मंशा थी और उन्होंने स्पष्ट रूपसे यंग इण्डिया में सम्भवत: 1931 में कहा था कि “अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए हमारे लड़के-लड़कियों की शिक्षा बन्द कर दूं, और सारे शिक्षकों एवं प्राध्यापकों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूं I या उन्हें बर्खास्त कर दूं I मैं पाठ्यपुस्तकों की तैयारी का इन्तजार नहीं करूंगा I वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे चली आएंगी I यह एक बुराई है, जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिए I”
हमें तो गर्व होना चाहिए कि गांधीजी की मंशा पूर्ण होने का शंखनाद हुआ है I गांधीजी के सिद्धान्तों को मूर्तरूप देने वाले दृढ निश्चयी माननीय मोदीजी ने स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर इसका शुभारम्भ किया है I मोदीजी के ही नेतृत्व में देश के एक हिन्दी भाषी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान तथा चिकित्सा शिक्षा मंत्री श्री विश्वास सारंग जी ने उनकी मंशा को साकार करने की दिशा में समारोहपूर्वक पहला कदम बढ़ाया है I यह तो भाषाई गुलामी से मुक्ति का महापर्व है I इस पर्व की पूर्ण सफलता में आने वाली सम्भावित कठिनाइयों के व्यावहारिक समाधान, मध्य प्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार को देने हेतु हमारे द्वारा युद्धस्तर पर प्रयास किए जाने की अपेक्षा थी और अभी भी है I हम सभी के सहयोग के बिना क्या कोई भी सरकार ऐसे राष्ट्रहित के कार्य को समयसीमा में व्यापक रूप में पूर्ण कर सकती है?
क्या स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद ही गांधीजी की मंशा साकार हो जाती तब भी क्या, ये सभी प्रकार की आशंकाएं-आलोचनाएं हम सभी के मन-मस्तिष्क में उसी परिमाण में आकार लेती? उत्तर है कदापि नहीं लेती I
क्यों, क्योंकि तब तक अंगरेजी ने हमारे मन-मस्तिष्कों को इतना ग्रसित नहीं किया था, गुलाम नहीं बनाया था I इसलिए भी कि तब यह निर्णय आरएसएस या मोदीजी का नहीं कहलाता I इसलिए भी कि हम उस समय बाजारवाद के आक्रामक प्रचार-प्रसार से मुक्त थे I इसलिए भी कि उस समय अंगरेजी के चंगुल से 90% भारतीय मुक्त थे और आज तो शहरों और कस्बों तक में गरीब बस्तियों के बच्चों पर अंगरेजी को जबरिया थोपा जा रहा है I
हिन्दी की प्रासंगिकता और प्रीपीजी मेडिकल स्टूडेंट्स
हिन्दी मातृभाषा से आए चिकित्सा विद्यार्थियों के जीवन में हिन्दी की उपयोगिता का इससे बढ़कर क्या प्रमाण होगा कि जब अंगरेजी में पढ़ाई-परीक्षाओं के अनेक सोपानों को पार करते हुए साढ़े पांच वर्ष की पढ़ाई के बाद चिकित्सक जब प्रीपीजी की तैयारी करते हैं तब भी वे कांसेप्ट्स समझने के लिए हिंगलिश में उपलब्ध व्याख्यानों को सुनते हैं I प्रेपलैडर नामक व्यावसायिक कोचिंग संस्थान ऐसे वीडियोज को अनावश्यक रूप से तो तैयार नहीं करवाएगा, यह तो बनी बात है I इसका अर्थ यह है कि अंगरेजी जानने-समझने वाले चिकित्सकों के लिए हिन्दी कांसेप्ट्स समझने की दृष्टि से अंगरेजी से बेहतर है I
अंगरेजी थोपे जाने के षड्यंत्र और उसके घातक परिणामों से अनभिज्ञ हम भारतीय
यह बताना प्रासंगिक होगा कि भारत में तीव्रता के साथ अंगरेजी केवल ज्ञानार्जन के लिए नहीं पधराई गई थी, यह हमारी संस्कृति, हमारी परम्पराओं, हमारी धार्मिकता, हमारी विश्व स्तर की धरोहरों-उपलब्धियों को अंधविश्वास सिद्ध करते हुए, उन सबकी चुपचाप [ताकि आपको पता ही नहीं चले] अंगरेजी द्वारा जड़ें काटी जा सकें I वे पूरीतरह सफल होते ही जा रहे हैं I
हमारी विज्ञानसम्मत भाषा, देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप भूषा और भोजन आपसे विलग कर दिए गए हैं, उन्हें बड़े ही शातिराना और गुप्त तरीके से अपदस्थ किया जा चुका है I आप अनभिज्ञ हो और हमारे व्यवहार में ऐसे बदलाव आ चुके हैं कि माता-पिता को स्वप्न में वृद्धाश्रम दिखने लगे हैं, क्योंकि अनायास ही श्रवण कुमार लुप्त हो गए हैं I हम धर्म [नैतिकता], अर्थ [नैतिकता की सीमा में धनार्जन], काम [नैतिक मूल्यों का सम्मान करते हुए सुख सुविधाओं का उपभोग] और मोक्ष [अर्जित अतिरिक्त धन का परमार्थ हेतु उपयोग, जैसे टाटा,बिरला आदि अनेकानेक धनाढ्य करते हैं] के क्रमिक पुरुषार्थ मार्ग से भटक कर जिस किस तरीके से धन का अर्जन करना [अर्थ] और नैतिक-अनैतिक को भुलाकर अच्छी-बुरी सुख सुविधाओं का भोगने, शराब, जुआ, नशा, स्वच्छन्द यौनाचार [काम] में ही बुरीतरह जकड़ चुके हैं I बेटियां तक मां-बाप की हत्या कर डालती हैं, केवल धन हथियाने के लिए ही नहीं अपितु मोबाइल या छद्म प्रेमी के लिए भी I हमें कोई भान ही नहीं है, इन गम्भीर आत्मघाती स्थितियों के विषय में चिन्ता कदापि नहीं है, इसे जमाने की दौड़ का सहज परिणाम मान कर चुप्पी साधे हुए हैं I हमें लगा ही नहीं कि कि इसके पीछे के क्या-क्या सम्भावित कारण हो सकते हैं I आखिर इस विषय में हमने क्यों नहीं सोचा? क्या हमें नहीं सोचना था? हमें आज से ही सोचना शुरू कर देना चाहिए, देर आयद दुरुस्त आयद I
हे राम ओह शिट हो गया, राम-राम हेलो हाय हो गया, आपकी माँ मम्मी और माम तथा पिताजी डैडी और अब डैड हो चुके हैं, पूर्णतया वैज्ञानिक और स्वास्थ्यप्रद शौच पद्धति पूर्णतया अवैज्ञानिक कमोड के सम्मान में लुप्तप्राय हो चुकी है I दीप प्रज्ज्वलन के स्थान पर पवित्र अग्नि देवता को थूक मिश्रित फूंक मार कर अपशगुन को आमंत्रित किया जाना एक आन्दोलन बन गया है I मटके का क्षारीय पानी आरो के जहरीले एसिडिक [वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन] पानी से डर कर भारतीय घरों से पलायन कर चुका है, अनेकानेक स्वास्थ्य लाभों से परिपूर्ण ताम्बे का पानी बेड टी के कारण आत्मघात कर चुका है I परम्पराओं, भाषा, भूषा और भोजनादि में अंगरेजी सभ्यता के चलते जो बदलाव आएं हैं, वे स्वास्थ्य आदि के लिए बहुत नुकसानदायक हैं और रोगों के अँधेरे कुँए में हमें धकेल रहे हैं I तंग और खुरदुरे वस्त्रों में हमारी त्वचा सांस नहीं ले पाती है, प्रत्येक एक वर्ग इंच त्वचा पर सीमा सुरक्षा दल के मुस्तैद सैनिकों की तरह करोड़ों मित्र सूक्ष्म जीवाणु होते हैं, वे नष्ट होने लगते हैं, परिणामत: त्वचा रोगों की बाढ़ आ गई है I खड़े-खड़े, जूते-मौजे पहनकर, जल्दी-जल्दी भोजन करने से एसिडिटी, अपच, मोटापा, मधुमेह और यहाँ तक कि कैंसर की सम्भावनाएं अत्यधिक बढ़ जाती है और हम अनभिज्ञता में अनुसरण करते चले जा रहे हैं और तो और हमारे सदियों से सत्यापन की कसौटियों पर खरे उतर चुके घरेलू नुस्खों का परित्याग कर हमने बिना डॉक्टरी पर्चे के मिलने वाली किडनी नाशक दवाओं का सेवन करने को आधुनिकता मानने लगे हैं I
संस्कृत, संस्कृत से उपजी भारतीय भाषाएं और मानवीयता एवं वसुधैव कुटुम्बकम् एवं मोदीजी
जिस संस्कृत की वैज्ञानिकता पर पाश्चात्य वैज्ञानिक और नासा अपने शोधों के निष्कर्ष से हतप्रभ और प्रफुल्लित होकर उसकी अनुशंसा कर रहे हैं I महान भाषावादी और अमेरिका में लिंगविस्टिक सोसाइटी के संस्थापक लियोनार्द ब्लूमफिल्ड ने पाणिनि अष्टाध्यायी के अध्ययन के बाद कहा है कि “संस्कृत मानवीय बुद्धिमता का महानतम मन्दिर है I” यूनेस्को ने माना है कि संस्कृत में जाप से मन और तन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है I उस संस्कृत की बेटियों [भारतीय भाषाओं] की वैज्ञानिकता, संवेदनाओं का वरदान देने वाली, बौद्धिक चेतना से सम्पन्न करने वाली क्षमताओं से अनभिज्ञता के साथ घर निकाला देने में गर्व का अनुभव कर रहे हैं I हमें मालूम ही नहीं है कि युद्ध या एकाधिकार की आकांक्षा, परमाणु हथियारों की बाढ़, सबको पराजित और अधीन करने की उत्कट मनोकामना, भयावह हिंसा की स्वीकार्यता, धन के लिए सब कुछ जायज मानने की उत्कट लालची वृत्ति, अहंकार, मदान्धता, सभी को गुलाम बना देने की तीव्र और तानाशाह मानसिकता के सशक्तिकरण में कहीं न कहीं भाषा का भी हाथ हो सकता है I आखिर क्यों भारत की पुण्यभूमि पर जन्म लेने वाले हिन्दू अवतारों, जैन तीर्थंकरों, गौतम बुद्ध और उनके अनुयायी शासकों ने शक्ति सम्पनता के उपरान्त भी शान्ति, संतुष्टी, सरलता, सहजता, अहिंसा, जियो और जीने दो, सर्वे भवन्तु सुखिनः, विश्व का कल्याण हो, प्राणियों में सद्भावना हो जैसे जीवनदायी मन्त्रों का उद्घोष कर उन्हें जीवन में अंगीकार किया है? कबीरदासजी, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविन्द, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी योगानन्द, जिद्दु कृष्णमूर्ति जैसे अनेकानेक लोगों की परम्परा है, जिन्होंने जीवनपर्यन्त देश-विदेश में मानवता का दिव्य सन्देश दिया I हिन्दी माध्यम से पढ़े-बढे ओशो की बुद्धिमता और आभामंडल से अमेरिका की सरकार तक भयभीत रहती थी, इन सभी बातों से यही ध्वनित होता है कि अंगरेजी और बौद्धिक श्रेष्ठता का कोई स्थायी सम्बन्ध नहीं है I प्रश्न यह है कि आखिर क्यों मोदीजी जैसे सैन्य शक्ति से सम्पन्न तथा सशक्त शासक को विश्व के अधिसंख्य नागरिक विश्वशान्ति का अग्रदूत मान रहे हैं ? मेरे अभिमत में इसमें संस्कृति के साथ-साथ संस्कृत से जन्मी भाषाओं का बहुत बड़ा हाथ है I
भारतीय भाषाओं का विज्ञान
नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर, नईदिल्ली की एक प्राथमिक रिसर्च, जो करेंट नामक विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुई थी कि संस्कृत से जन्मी भाषाओं और अंगरेजी में मौलिक अन्तर होने से अंगरेजी पढने से मस्तिष्क का बायाँ गोलार्द्ध ही अधिक सक्रिय होता है, जो तर्क, गणित, खण्ड-खण्ड विश्लेषण आदि से जुड़ा है और दायाँ गोलार्द्ध करुणा, शान्ति, वात्सल्य, ममता, कला, संगीत, अखण्ड दृष्टि आदि से जुड़ा है I अमेरिका और ब्रिटेन की तरह भारत में भी तेजी से हो रहे पारिवारिक विखंडन और धनप्रधान मानसिकता की पृष्ठभूमि में अंगरेजी के हाथ को खोजा जाना चाहिए I स्कूलों में गर्भपात की समस्त सुविधाओं के उपरान्त भी हर वर्ष अमेरिका और ब्रिटेन की लाखों कुंवारी किशोरी माताओं की भयावह बाढ़ के पीछे अर्थ और काम प्रधान वाली अंगरेजी भाषा की भूमिका पर शोध किए जाने चाहिए I भारतीय मानस या यूँ कहें, आयुर्वेद हरेक व्यक्ति को प्रकृति के सन्दर्भ में एक पृथक व्यक्तिसत्ता मानकर उपचार और दिनचर्या निश्चित करता है और जबकि अंगरेजी चिकित्सा विज्ञान एक देश के सभी व्यक्तियों को एक समान मशीन मानने का ज्ञान देता है, इसलिए रोग विशेष में सभी भारतीयों के लिए अधिकांशत: समान दवाएं प्रिस्क्राइब की जाती है, मात्रा उम्र के साथ बदल जाती है I आपने यह भी देखा होगा कि एक पेट रोग या स्त्रीरोग, या नेत्र विशेषज्ञ साढ़े पांच वर्षीय पाठ्यक्रम [एम.बी.बी.एस.] में निष्णात होने उपरान्त भी रोगी के साधारण सर्दी-बुखार के उपचार के लिए जनरल फिजिशियन के पास भेजता है, यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति एक विकासशील देश के मध्यमवर्गीय या निम्नवर्गीय रोगी को अनेक विशेषज्ञों के बीच फुटबाल बना कर उसकी आर्थिक स्थिति को गम्भीर रूप से प्रभावित कर डालती है I
अस्तु, ज्ञान आयोग के बाल्यावस्था में ही अंगरेजी थोपने के निर्णय ने तो पैदा होते ही मानो कुनैन की गोली को अनावश्यक रूप से जबरिया जीवन घुट्टी का नाम देकर बच्चों के मुंह में ठूंसने का बहुत बड़ा पराक्रम किया है I
हिन्दी माध्यम से चिकित्सा शिक्षा और हमारी गहन चिन्ता
चिकित्सा शिक्षा हिन्दी माध्यम से दिए जाने के निर्णय से हमें इस बात की तो गहन चिन्ता हो गई है कि हिन्दी पढ़कर निकलें चिकित्सक विदेशी शोध पत्रिकाओं को कैसे पढेंगे? परन्तु हमने आज तक यह पता नहीं किया कि अंगरेजी माध्यम से पढ़ें कितने प्रतिशत भारतीय चिकित्सक देशी और विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के शोधों को पढ़ते हैं I मैंने लगभग ढाई दशकों तक सफलतापूर्वक डिस्पेंसिंग चिकित्सक के रूप में प्रैक्टिस की मुझे तो इसकी कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी I जो नगण्य चिकित्सक पढ़ते हैं, वे उन शोधों को अपनी प्रैक्टिसिंग लाइफ में कितना अपनाते हैं, यदि ऐसा शोध करेंगे तो वास्तविकता का अनुमान लग सकेगा I
विदेशों की चिंता में आकण्ठ डूबे हम लोगों ने यह भी कभी पता ही नहीं किया कि हमारे गाँवों के नागरिकों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती हैं अथवा नहीं मिलती है या उन सुविधाओं का स्तर कैसा है I हमारे ग्रामीण परिवार इसी के चलते, शने: शने: गाँवों को छोड़कर शहरों की भीड़भाड़ भरी अपरिचित जिन्दगी में अपनी अस्मिता को तिरोहित करने को विवश हो चुके हैं I हमें अपने ग्रामीण नागरिकों की चिन्ता प्राथमिकता से करने की आवश्यकता है, सम्भव है, यह भाषाई परिवर्तन गाँवों के लिए भी वरदान सिद्ध हो I
आतंकित, उपेक्षित, निराश, हताश चिकित्सा विद्यार्थी और उनकी जिम्मेदारों द्वारा आपराधिक अनदेखी
दुःख इस बात का भी है कि हमें इस बात की कभी चिंता नहीं हुई है कि हिन्दी माध्यम से प्रवेशित कितने प्रतिशत मेडिकल स्टूडेंट्स अंगरेजी के आतंक से भयातुर होकर घर से दूर अपने बन्द कमरों में अकेले क्रंदन करते रहते हैं और उनकी वाणी में अनायास उतर गई निराशा की अनुगूँज को मां-बाप पहचान लेते हैं और फिर वे माता-पिता कितने व्यथित, आक्रांत और आशंकाओं के समुद्र में डूबते उतराते रहते हैं? काश ! अपनी साढ़े तीन दशक की सेवावधि में एक आत्मीय मित्र की तरह देखें और अनुभव किए गए उन क्रन्दनों को एक छोटे तालाब में एकत्रित कर आपके दर्शनार्थ प्रदर्शित कर पाता I विश्वास कीजिए साहब, आपकी आत्मा बुरीतरह काँप जाती I वे तो हमारे अपने बेटे-बेटियाँ ही हैं, विदेशी या पराए नहीं हैं I उनकी हमने कभी चिन्ता नहीं की I हमें पैरों की आग नहीं दिखाई दे रही है, परन्तु पहाड़ों की आग की गहरी चिन्ता है I एक शोध करवाइए, कितने बच्चें पिछले चालीस वर्षों में प्रथम वर्ष में अंगरेजी भाषा के कारण अनुत्तीर्ण हुए हैं और फिर पूरक परीक्षा में पहली बार में ही सफल हुए हैं I आपको पता चलेगा कि प्रवेश परीक्षा में शीर्ष सातवां-आठवां स्थान पाने वाले तक असफल हुए थे, अन्यों की कल्पना की जा सकती है I यह पता करवाना चाहिए कि कितने बच्चों ने एम.बी.बी.एस. का साढ़े पांच वर्षों का पाठ्यक्रम आठ-दस-पन्द्रह वर्षों में पूरा किया है? एक विद्यार्थी ने जब 21 वर्ष में प्रथम वर्ष उत्तीर्ण किया था तो उसकी जिजीविषा पर दैनिक भास्कर के एक पत्रकार ने बड़ी स्टोरी प्रकाशित की थी, जो मेरे पास है, शीर्षक था “उन्होंने 21 वर्षों में पार की डॉक्टरी की पहली सीढी I” उसकी और उसके परिवार तथा उसके जैसे सैकड़ों बच्चों की पीड़ा को किसी ने नहीं सुना, न सरकार ने, न कॉलेज ने, न अध्यापकों ने I चिकित्सा शिक्षा में अंगरेजी भाषा की अपरिहार्यता-अनिवार्यता ने नीति निर्धारकों, अध्यापको आदि सभी को आत्मसम्मोहित कर रखा है I
समस्या का समाधान और मैडम बोस की दूरदृष्टि तथा शैक्षणिक उन्नयन की योजना
मेरी तत्कालीन हेड डॉ. सुखवंत बोस [जो स्वामी विवेकानन्द की अनुयायी हैं] ने ऐसे बच्चों के दर्द को समझा और मुझसे पूछा कि क्या मैं उनके अभियान में साथ दूंगा? फिर हम दोनों ने ऐसे बच्चों के मनोबल को बढाने का पराक्रम शुरू किया और हिंगलिश में सरलता के साथ, वर्ष में केवल दो-तीन दर्जन अतिरिक्त कक्षाओं के रूप में पढाना शुरू किया I हम केवल एक विषय, फिजियोलॉजी ही पढ़ाते थे I अन्य शिक्षकों को लगा कि कहीं सरकार हमें भी इस काम में नहीं लगा दें तो उस पुनीत कार्य को ट्विस्ट कर हमारी ऊपर तक शिकायत की गई, हमें अधिष्ठाता की बहुत डांट खाना पड़ी I क्लासेस बन्द हो गई, बच्चें हतप्रभ और दुखी हुए I उनका आग्रह था कि क्लासेस फिर से शुरू की जाए [डूबता व्यक्ति मिली हुई पतवार के छूट जाने पर, जितना व्याकुल और दुखी होता है, उतने वे हुए], फिर मैडम ने एक निर्विवाद वैधानिक रास्ता निकाला, फिर अभियान शुरू हुआ I जब क्लासेस शुरू की थी, तब हर साल 35 से 40 बच्चें असफल होते थे, चार-पांच वर्ष बाद सन 2004 के परिणाम निकलें तो यह संख्या कम होते-होते छह रह गई थी I हमने केवल फिजियोलॉजी पढ़ाया था, परन्तु जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि हमारा कोई सहृदयी है, सुहृद है तो उनका मनोबल बढ़ा, आत्मविश्वास जागा और वे तीनों विषयों में बेहतर परफार्म करने में सक्षम हुए I स्वामी विवेकानंदजी ने कहा था शिक्षा विद्यार्थियों के भीतर अन्तर्निहित प्रतिभा का प्रस्फुटन करती है, हमसे वही अनायास होता चला गया I और जब सरकार ने 2004 में प्रदेश के सभी मेडिकल कॉलेजों से पूछा की विद्यार्थियों के उन्नयन के लिए आपके संस्थान में क्या-क्या नवाचार हो रहे हैं, तो अधिष्ठाता ने मैडम और मेरे इस नवाचार को कॉलेज की उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया था I मैडम के सेवानिवृत्त होते ही, जून 2005 के उपरान्त वह कार्य बन्द हो गया I परन्तु तब से 2019 तक के ऐसे सभी बच्चों का ईश्वर ने मुझे स्थायी और विश्वसनीय मित्र बना दिया था, मैं संयोगवश स्टूडेंट वेलफेयर कमेटी का निरन्तर पदाधिकारी भी रहा I बस, उनको यह विश्वास दिला देता था कि चिन्ता मत करो मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ, सभी विद्यार्थियों के लिए मैं 24x 7 उपलब्ध था I हिन्दी बहुल अंगरेजी में पढ़ाना मेरी दैनिक चर्या हो गया, मैंने अतिरिक्त क्लासेस के लिए विभागाध्यक्षों और अधिष्ठाताओं से अनुमति हेतु पत्र भी लिखें I यह भी शोध किया जाना चाहिए कि विभिन्न मेडिकल कॉलेजों में कितने बच्चों ने इस थोपी गई अंगरेजी के कारण निराशा, अवसाद और नशे को अपना स्थायी साथी बनाया और कितने विद्यार्थियों ने आत्महत्या की I दो-तीन बच्चों को तो आत्मघात से बचाने के लिए ईश्वर ने मुझे निमित्त बनाया है I मैंने मैडम के द्वारा किए गए पराक्रम के अनुभवों के आधार पर “हिन्दी माध्यम और आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों और सकल चिकित्सा शिक्षा के उन्नयन की शून्य बजट प्रभार की सार्थक योजना” को कागजों पर उतारा और अनेक चिकित्सकों, शिक्षाविदों आदि से उस पर टिप्पणी चाही, सभी टिप्पणियां सकारात्मक और सराहनाओं से परिपूर्ण थी I उस योजना को, विद्वानों की टिप्पणियों के साथ, मैंने 2009 में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री श्री गुलाम नबी आजाद को प्रेषित किया था I तीन जुलाई 2009 को उनका पत्र आया कि मैं इसे दिखवा रहा हूँ I फिर उस योजना को अधिष्ठाता, मेडिकल कॉलेज, जबलपुर को दिखाया और उनसे चर्चा की I सहमत और कन्विंस होने पर उन्होंने अपनी अनुशंसा के साथ शासन को भेजा I मैं इस योजना के क्रियान्वयन हेतु एक दिन भोपाल में चिकित्सा शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव श्री इन्द्रनील शंकर दानी सर से मिला I उन्होंने पर्याप्त समय दिया और सभी मेडिकल कॉलेजों को उसे क्रियान्वित करने के लिखित निर्देश दिए I यह फरवरी 2012 की बात है I उस आदेश को लालफीताशाही समूचा निगल गई I फिर एक दो वर्ष बाद मैं तत्कालीन अपर मुख्य सचिव श्री अजय तिर्की सर से मिला I उन्होंने इस योजना के परिणामों का आकलन कर शून्य बजट के स्थान पर धन राशि भी आवण्टित की और सभी मेडिकल कॉलेजों को बजट के साथ उस योजना को क्रियान्वित करने के निर्देश दिए, मेरे इन्कार करने उपरान्त भी मुझे और एक सह प्राध्यापक को उसका प्रभारी बनाया गया I दुर्भाग्य देखिए कि विभागाध्यक्षों के अहंकार, हठधर्मिता और स्वयं को सुपीरियर एवं मठाधीश मानने की जिद ने अपर मुख्य सचिव के आदेश और बजट को निरर्थक सिद्ध कर दिया I तब समझ में आया कि भारत में “स्टेटस को तथा व्यक्तिगत अहंकार” तो अमर जड़ी खाकर आए हैं I
हताशा, निराशा और अंगरेजी माध्यम
अस्तु, हिन्दी भाषा की आवश्यकता को निरूपित करने हेतु, एक प्रसंग का उल्लेख प्रासंगिक होगा, एक सामान्य श्रेणी की छात्रा अपने अभिभावकों के साथ मैडम बोस से मिली, जो फिजियोलॉजी की हेड होने के साथ-साथ विद्यार्थी शाखा समिति की प्रमुख भी थी और मैं उनकी समिति का सदस्य I वे अपनी बेटी को कॉलेज से निकालना चाहते थे, और तत्काल ही कॉलेज लिविंग सर्टिफिकेट [सीएलसी] चाहते थे, क्योंकि वह अंगेरजी के कारण निराशा और हताशा की शिकार हो चुकी थी, आत्मविश्वास खो चुकी थी I तात्कालिक व्यस्तता के चलते मैडम ने उन्हें मेरे पास भेज दिया I मैंने बहुत समझाया, परन्तु तीनों अड़े रहे I मैंने उस छात्रा से यही कहा कि बेटी ! कठिन प्रतिस्पर्धा के बाद तेरा प्रदेश के सबसे अच्छे कॉलेज में एडमिशन हुआ है, इसका अर्थ यही है कि तू सर्वथा योग्य है I जब तेरे जैसे और तुझसे कमतर विद्यार्थी कॉलेज छोड़ने की नहीं सोच रहे हैं तो तू क्यों हताश होती है? वे किसी साइंस कॉलेज में एडमिशन की प्रक्रिया की औपचारिकता पूरी कर चुके थे, सीएलसी जमा करने की समयसीमा निकट थी I परन्तु मैंने उनसे स्पष्ट कह दिया कि आठ दिन बाद यदि इसकी यही मंशा रही तो मैं एक ही दिन में इसका काम करवा दूंगा I मैंने उससे स्पष्ट कह दिया कि बेटी ! तू आठ दिनों में सोच लें कि तुझे डॉक्टर बनने का सपना छोड़ देना चाहिए या नहीं छोड़ना चाहिए I तीनों मेरी इस हरकत को तानाशाही निरूपित करते हुए बहुत अप्रसन्न हुए, उनके अधिकारों पर मेरी मनमानी को अवैध बताया, उन्हें यह लग रहा था कि उसका साइंस कॉलेज का एडमिशन निरस्त हो जाएगा, तो मैंने उनसे कहा कि मैं निरस्त नहीं होने दूंगा, सम्बन्धितों से मैं चर्चा करूँगा I अत्यधिक क्रोध परन्तु असहाय भाव के साथ वे चले गए I कुछ दिनों बाद वह बिटिया चुपचाप कॉलेज आने लगी और वातावरण से समरस और सहज हो गई I और जब उसे फाइनल इयर में गायनी विषय में गोल्ड मैडल मिला तो मेरे कक्ष में आई और बोली सर, आपके आशीर्वाद से मुझे यह उपलब्धि हुई है I ऐसे तमाम अनुभवों के आधार पर, मैंने एनएमसी को कई बार लिखा है कि न केवल फर्स्ट इयर के विद्यार्थियों के लिए बल्कि सभी के लिए सप्ताह में एक बार मेडिकल कॉलेज में ही मनोचिकित्सक और मनोविज्ञानी को बिठाया जाना चाहिए और स्टूडेंट वेलफेयर कमेटी वास्तविक रूप में [कागजी तो सभी दूर है] अस्तित्व में होना चाहिए I
गलती और अनदेखी एमसीआई और व्यवस्था तथा शिक्षकों की और दण्ड विद्यार्थियों को तथा रिपीटर बैच
एमसीआई के नियम चीख-चीखकर कहते हैं कि प्रथम वर्ष में जो विद्यार्थी अनुत्तीर्ण हो जाएं, उन्हें कभी भी अपनी मुख्य बैच [मुख्यधारा] में सम्मिलित नहीं किया जाएगा I यानी कथित गुणवत्ता की आड़ में उनका एक वर्ष तो बर्बाद करना ही, साथ ही साथ उनके अपने सहपाठियों से विलग कर उनकी मानसिकता को कुण्ठित करना भी परोक्ष दायित्व इस नियंता संस्था ने बड़ी मुस्तैदी से सम्भाल रखा था, इसके विरुद्ध कोर्ट केस लगवाया तो एमसीआई ने पूरी ताकत झोंक देती थी I इस संस्था ने कभी स्वयं से यह प्रश्न नहीं किया कि आखिर प्रतिभासंपन्न बच्चें असफल क्यों होते हैं और उसका समाधान कैसे किया जा सकता है ? अफसोस और धिक्कार है कि ऐसी संवेदनशून्य और विद्यार्थियों के प्रति उपेक्षा का स्थायीभाव रखने वाली संस्थाएं देश में मेडिकल एजुकेशन की उच्चतर गुणवत्ता के लिए दायित्व को सगर्व धारण करती हैं I मैंने मेडिकल कॉलेज, इन्दौर के लगभग पांच सौ पृष्ठों के ऐतिहासिक दस्तावेज “शाश्वत गाथा” में रिपीटर्स की आत्मकथा पर पांच पृष्ठ के आलेख और समाधान लिखें थे I मेरा निवेदन है कि ऐसी संवेदनशून्य संस्थाओं पर हम सभी लोग प्रश्न उठाएं I मेरा कंसर्न यह है कि क्या ऐसी नियंता संस्थाएं विद्यार्थियों के साथ असंवेदनशील व्यवहार और परोक्ष शोषण कर आम नागरिकों के निर्विवाद हितैषी तथा संवेदनाओं से भरे चिकित्सकों की जनरेशन का निर्माण कर सकेंगी? विचारणीय है I
वास्तव में रिपीटर बैच हिन्दी माध्यम के बच्चों के माथे पर सदा के लिए उकेरा [इम्बोज किया] गया कलंक है और मैं बाइस वर्षों से पत्र लिखता रहा हूँ, पत्रकार मित्रों के सहयोग से समय-समय पर समस्या और समाधान पर बड़ी-बड़ी स्टोरी लिखता-लिखवाता रहा हूँ ताकि अंगरेजी के आतंक के कारण असफल हुए विद्यार्थियों को उनकी अपनी मुख्य बैच से अलग नहीं किया जाए और उन्हें विशेष कोचिंग देकर दो माह में पूरक परीक्षा लेकर फिर से मुख्यधारा में जोड़ लिया जाए I मध्य प्रदेश आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय, जबलपुर के यशस्वी कुलपति डॉ.आर.एस. शर्मा साहब ने मेरे निवेदन को समझा और दो दशक बाद, 2018 में मध्य प्रदेश में रिपीटर बैच की कलंकित प्रथा को समाप्त कर दिया I और मुझे ज्ञात हुआ है कि मेरे पत्रों पर संज्ञान लेकर दशकों तक विद्यार्थियों के साथ अन्याय करने के उपरान्त, इस वर्ष से एनएमसी ने अपनी हठधर्मिता का त्याग किया है I डॉ. शर्मा साहब ने मेरे सुझाव पर उन्होंने विद्यार्थियों को वार्षिक परीक्षाओं में हिंगलिश में उत्तर लिखने की अनुमति के लिखित आदेश भी दिए, जिसके परिणाम सिग्नीफिकेंट रूप से सुखद रहे थे I
मैंने शोध प्रबन्ध हिन्दी में इसलिए प्रस्तुत किया
विभागीय परीक्षाओं में लिखें, हिन्दी माध्यम से आए बच्चों के उत्तर, स्पेलिंग और वाक्य रचना शिक्षकों के लिए उपहास का विषय हुआ करती थी, कई बार उन्हें क्लास में उत्तरपुस्तिका दिखाकर मखौल का शिकार भी बनाया जाता था I मुझे बुरा लगता था, क्योंकि मैंने पढ़ाते समय हमेशा स्वयं को विद्यार्थियों के बीच एक छात्र के रूप बैठें देखा है, तो मुझे लगता था कि यह मेरा ही अपमान है I एक वरिष्ठ साथी समझ जाते थे कि भण्डारी को बुरा लग रहा है I तब अचानक एक दिन मस्तिष्क में विचार कौंधा और मैंने देशभर के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करने का सुनिश्चित किया I हिन्दी में भी चिकित्सा विज्ञान लिखा जा सकता है, यह सिद्ध करने के लिए अंगेरजी में तैयार हो चुकी अपनी शोध पांडुलिपियों के भाषान्तरण की ठान ली और इसतरह मैं मध्य प्रदेश का हिन्दी में अपने स्नातकोत्तर अध्ययन का शोध प्रबन्ध हिन्दी [1992] में प्रस्तुत करने वाला पहला चिकित्सक बना I उस दौर में मेरा बहुत मजाक बनाया जाता था, मेरे मनोबल को तोड़ने के भरसक प्रयास भी परोक्ष रूप से भी हुए I मुझे स्वामी विवेकानन्दजी का वह वाक्य स्मरण हो आता था कि दुनिया क्या कहेगी, हंसेगी, उसे हंसने दो I बस, मैं अपने निर्णय से डिगा नहीं I ईश्वर मेरे साथ थे, हिन्दी माता मेरे साथ खड़ी थी I
अंगरेजी माध्यम की अनिवार्यता से दुखी और निराश विद्यार्थियों के हितार्थ मांग तो यह उठाई जाना चाहिए थी कि हिन्दी माध्यम से आने वाले बच्चों को अंगरेजी के आतंक से आतंकित नहीं होने देंगे और उन्हें अंगरेजी का आवश्यक ज्ञान देने की मांग करेंगे I परन्तु आज तक किसी उपदेशक ने ऐसा नहीं किया, फेसबुक और अन्यान्य सभी माध्यमों पर हम हिन्दी माध्यम में चिकित्सा शिक्षा के शुभारम्भ पर प्रश्न तो उठा रहे हैं, परन्तु मूल समस्या का हमने अनुमान ही नहीं किया और समाधान का तो प्रश्न ही नहीं उठता है I
और तो और न तो सरकारी तंत्र ने, न ही शिक्षकों ने उन बच्चों के अंतस में झाँकने का प्रयास नहीं किया I और न ही मेडिकल कौंसिल ऑफ इण्डिया ने और न विश्वविद्यालयों ने I
सकारात्मक सोचिए, हिन्दी समर्थ भाषा है
हम सबको सकारात्मक सोचना चाहिए, बड़ा सोचना चाहिए, हिन्दी के परम वैभव की कल्पना कर तदर्थ रणनीति बनाने का दायित्व हम पर है I हिन्दी आएगी, ज्ञानार्जन अधिक सरलता से और बेहतर होगा, ज्ञान अधिक क्षमता से आत्मसात होगा I हिन्दी भाषा से हमारे भावी चिकित्सकों में तर्क क्षमता, विश्लेषण क्षमता, निर्णय क्षमता, रोग निदान की श्रेष्ठता का आविर्भाव सहजता से होगा I आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पिता के नाम से प्रसिद्ध डॉ. विलियम ओस्लर ने कहा था कि चिकित्सा पद्धतियों का आविष्कार एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य की पीड़ाओं को हरने की संवेदना से भरपूर प्रबल इच्छा के कारण होता है I बौद्धिक क्षमता का विकास अंगरेजी से ही हो सकेगा, यह भ्रान्त धारणा है, यह तो हर विद्यार्थी की अपनी नैसर्गिक सम्पदा होती है, जिसे थोपी जा रही अंगरेजी नष्ट कर दिया करती रही है I
भारत संवेदनाओं की भूमि है, आप मानें या न मानें अंगरेजी और अंगरेजी के साथ सहज रूप से आ रही परिस्थितियां मानवीय संवेदनाओं के विकास की दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं है और एक चिकित्सक की संवेदनाओं का पूर्ण विकास अत्यावश्यक है, अपरिहार्य है, अनिवार्य है I जिस भाषा में वे सपने देखते हैं, विचार करते हैं, उस भाषा में पढ़ाएंगे तो वे ज्ञान को समग्रता से आत्मसात करेंगे, चिकित्सा विज्ञान के जटिल सिद्धांतों को पूर्णता के साथ ग्रहण करेंगे I भाषा परस्पर संवाद का माध्यम है और भारत के अधिकाँश क्षेत्रों में हिन्दी समझी जा सकती है और रोगी से संवाद उसकी अपनी भाषा में सहजता से होता है तो उससे एक आत्मीयता का भाव रोगी में उत्पन्न हो जाता है I वैसे भी जब डॉक्टर की देश के अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में पोस्टिंग होती है तो वहां की स्थानीय भाषा तो पहले भी डॉक्टर सीखते ही रहे हैं, अभी भी सीखेंगे ही I चिकित्सा के व्यवसाय में रोगी और डॉक्टर के बीच पारस्परिक विश्वास का रिश्ता सदैव ही जीवन्त रहना अपरिहार्य है, क्योंकि इस विश्वास के रिश्ते के कारण अथर्ववेद वर्णित आश्वासन चिकित्सा [एश्योरेंस] प्रभावी हो जाती है, जो दुसाध्य रोगों में भी लाभदायक सिद्ध होती है, पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने सत्यापित किया है और इसीतरह सकारात्मक सोच उत्पन्न होने के कारण डॉ. ब्रूस लिप्टन के शोध के तहत रोगी तीव्रगति से स्वस्थ होने लगता है I हिन्दी माध्यम के कारण रोगी को उसके रोग और उपचार आदि के विषय में उसकी अपनी भाषा में समझाना भी चिकित्सक के लिए सहज होगा I
दुर्भाग्य देखिए कि आज चिकित्सक पर रोगियों का भरोसा नहीं रहा है, उसे जांचों और दवाओं में भी डॉक्टर के कमीशन की आशंका होने लगी है I इसके पीछे के कारणों की मीमांसा होना चाहिए I
अरे बाप रे ! स्वतन्त्रता के 75 वर्षों उपरान्त हिन्दी में पुस्तकें !!!
अस्तु, कल जब एल्सिवियर प्रकाशन की हिन्दी में तैयार पुस्तकों का विमोचन होने वाला था, तब किसी व्यक्ति ने अमेरिका स्थित मूल प्रकाशक को 30-40 हजार बच्चों की भीड़ और विशाल मंच और अन्य सभी आकर्षक तथा भव्य व्यवस्थाओं का वीडियो भेजा, तो उसने पूछा कि यह क्या हो रहा है, तो बताया गया कि पुस्तकों का लोकार्पण हो रहा है I वह हतप्रभ था कि इतनी छोटी-सी बात के लिए कार्यक्रम की क्या आवश्यकता है I तब उन्हें बताया गया कि भारत में स्वतन्त्रता के बाद पहली बार हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा की पुस्तकें उपलब्ध होंगी और शिक्षा का माध्यम हिन्दी होने वाला है तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ कि क्या अभी तक चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकें हिन्दी में नहीं थी I मित्रो ! यह प्रतिष्ठित प्रकाशन चिकित्सा शिक्षा की पुस्तकें विश्व की 31 भाषाओं में उपलब्ध करवाता है और दुर्भाग्य देखिए कि उन 31 भाषाओं में विश्वगुरु भारत की कोई भी भाषा सम्मिलित नहीं है, क्या अब भी हमें किन्तु-परन्तु करने का अधिकार है I
हिन्दी, श्रेष्ठ है और श्रेष्ठतम सिद्ध होगी, प्रतीक्षा तो कीजिए
मित्रो ! 74 वर्षों तक अंगरेजी को आजमाया है, आने वाले पन्द्रह बीस सालों तक माता हिन्दी या भारतीय भाषाओं को भी आजमा लीजिए और लिखकर रख लीजिए कि विश्व के सबसे सम्पन्न एवं शक्तिशाली तथा अंगरेजी मातृभाषा वाले देशों के विद्यार्थी भारत में हिन्दी माध्यम के एम.बी.बी.एस. कोर्स और आयुर्वेद कोर्स में पढने आएंगे और हिन्दी विश्व के एकीकरण की भाषा होगी I डंके की चोट, मेरा यह दावा है, यह मेरा अनुमान है I हिन्दी भाषा के पास 35 लाख शब्द हैं और अंगरेजी के पास 50 हजार शब्द ही हैं और हम तकनीकी शब्दों को जस का तस स्वीकार लेंगे या नए शब्द गढ़ लेंगे, नए शब्द गढ़ने का समय आ गया है I
गाँवों की प्रदूषणरहित मानसिकता और वायुमंडल में जन्मे विद्यार्थी जब हिन्दी माता की संवेदनशील गोद में बैठकर मेडिकल की पढ़ाई करेंगे तो परिदृश्य अनूठा होगा और पुनः भारतीय ऋषि-मुनियों की वैज्ञानिक परम्पराओं का उदय होगा I अभी तो केवल आस्ट्रेलिया के सर्जन्स कॉलेज के मुख्य प्रांगण में विश्व के पहले शल्य चिकित्सक के रूप में महर्षि सुश्रूत विराजमान हैं, कालान्तर में विश्वभर में भगवान् धन्वन्तरि की पूजा होगी, अभी तो केवल भारतीय दिनचर्या और अथर्ववेद की आश्वासन चिकित्सा, ऋग्वेद की स्पर्श चिकित्सा और मन्त्र चिकित्सा को पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने विज्ञान का परिधान पहनाया है I वन स्नान या वायु चिकित्सा अभी तक केवल जापान और अमेरिका में अपनाई जा रही है, इनका भी वैश्वीकरण होगा I अग्निहोत्र चिकित्सा, सूर्यकिरण चिकित्सा, जल चिकित्सा, आस्था चिकित्सा, प्रार्थना, सकारात्मक सोच की चिकित्सा, संगीत चिकित्सा भी अमेरिका और कुछ देशों के अतिरिक्त अन्य देशों में भी अपनी कृपा का आंचल पसारेंगी I
अनुदित पुस्तकों की गुणवत्ता की चिन्ता मत कीजिए
इन अनुदित पुस्तकों की क्वालिटी पर प्रश्न उठाए जाने लगे हैं, मुझे अच्छी तरह याद है, मैं साइकल सीखते समय पचीसों बार घुटनों को जख्मी कर चुका था, परन्तु घर के बड़ों ने यह नहीं कहा कि तेरी साइकल चलाने की क्वालिटी घटिया है और अब तू भूलकर भी साइकल को हाथ मत लगाना I कुछ दिनों बाद मैं बिना हैंडल पकड़े तीन किलोमीटर तक साइकल चलाने में निष्णात हो गया था I ये पुस्तकें सुधार के अनेक दौर पार करते हुए, विश्व के कोने-कोने में पढी जाएंगी, इतनी मुझे आश्वस्ती है और आप सभी इस अतिशयोक्ति पूर्ण निराधार घोषणा को सत्यापित होते हुए देखेंगे I संक्रमण काल या शैशवावस्था को बीत जाने दीजिए, बच्चा पहले लुढकना सीखता, फिर घुटनों के बल चलना, फिर डगमगाते हुए खड़े होना, और फिर सहारे से चलना और फिर दौड़ना भी सीख ही लेता है I
आचार्यश्री और सुदर्शनजी का आशीर्वाद
जून 2004 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख माननीय सुदर्शनजी ने मेरे पत्र के उत्तर में लिखा था कि “चिकित्सा शास्त्र के भारतीयकरण के लिए तुम्हारे जो प्रयास हो रहे हैं, वे योग्य दिशा में चल रहे हैं और हम सबको आनन्द देने वाले हैं I हिन्दी माध्यम का चिकित्सा महाविद्यालय प्रारम्भ हो यह मेरी बहुत दिनों की आतंरिक इच्छा रही है I बल्कि भाजपा की सरकार के मंत्रियों को भी यह सलाह अनेक वर्षों से देता रहा हूँ I”
मई 2014 में माता नर्मदा के किनारे, नेमावर में प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी ने मुझे व्यक्तिगत आशीर्वाद दिया था कि नि:स्वार्थ भाव से चिकित्सा शिक्षा हिन्दी में दिए जाने के लिए प्रयास करते रहो, सफलता मिलेगी I
शायद, आचार्यश्री का आशीर्वाद मोदीजी के मन-मस्तिष्क से निकलकर व्यापक हुआ है I मेरा योगदान श्रीरामसेतु के निर्माण में गिलहरी के योगदान से भी अत्यधिक कम है I मैंने जो भी किया है, वह एक निमित्त भाव से किया है या यह कहना अधिक सत्य होगा कि मैं उनकी कठपुतली रहा हूँ I मैं इसका तनिक भी श्रेय लेने का अधिकारी और आकांक्षी नहीं हूँ I
निश्चिन्त रहें, हिन्दी माध्यम के चिकित्सकों की अंगरेजी भी श्रेष्ठ होगी
यह तथ्य भी बताना चाहता हूँ कि भाषाविद, देश के प्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट, बेस्ट मेडिकल टीचर अवार्ड से अलंकृत पद्मश्री स्व.डॉ. अशोक पनगढ़िया ने लिखा था कि “जो व्यक्ति अपनी मातृभाषा में निष्णात होता है, वह दूसरी भाषा को सरलता से सीख सकता है I” नागपुर के धर्मपीठ विज्ञान महाविद्यालय के स्वर्ण जयन्ती समारोह पर भारतरत्न डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम साहब ने शिक्षकों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि “बच्चों को गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में दी जाना चाहिए इससे वे उस ज्ञान को समग्रता से आत्मसात कर सकेंगे और अंगरेजी तो वे बाद में पिकअप कर लेंगे, जैसे मैंने की है I”
मित्रो ! हिन्दी में शिक्षित-दीक्षित चिकित्सकों की अंगरेजी की चिन्ता करने की आवश्यकता इसलिए भी नहीं है, क्योंकि पूरे साढ़े पांच वर्ष तक वे उन चिकित्सकों के शिष्य रहेंगे, जिनकी जिव्हा पर अंगरेजी सहज रूप से विराजमान है और डरने की आवश्यकता नहीं है, वे स्वत: भी प्रयास करेंगे ही, रिसर्च पेपर जर्नल्स में भेजेंगे तब भी अंगरेजी में ही तैयार करेंगे I अन्यथा रेपिडेक्स इंग्लिश क्लासेस हैं ही, महीनेभर में अमेरिका में भाषण देने योग्य हो जाएंगे I
हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा, चन्द ऐतिहासिक तथ्य
हिन्दी प्रेमियों के आन्दोलनों के कारण दिसम्बर 1988 में तत्कालीन राष्ट्रपति वेंकटरमण ने केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को हिन्दी माध्यम से चिकित्सा शिक्षा हेतु निर्देशित किया था I नवम्बर 1989 में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने सभी हिन्दी प्रदेशों की सरकारों को इस विषय में कार्ययोजना बनाने के निर्देश दिए थे I भारत सरकार द्वारा प्रोफेसर मुकुलचंद्र पाण्डेय की अध्यक्षता में गठित चिकित्सा शिक्षा समिति ने दिसम्बर 1990 को प्रस्तुत अपनी 153 पृष्ठीय रिपोर्ट में चिकित्सा शिक्षा और पैरामेडिकल शिक्षा हिन्दी में किये जाने की अनुशंसा की थी I
हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा और मोदीजी
गांधीजी और मोदीजी के समान दृढइच्छा के अभाव में उक्त सारे आदेश और रिपोर्ट काल के गाल में समा गए थे और आज मोदीजी ने अपनी दृढ राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए इस कालजयी इतिहास का शुभारम्भ किया है, हम नतमस्तक हैं I प्रदेश के मुखिया श्री शिवराजसिंहजी चौहान और चिकित्सा शिक्षा मंत्री श्री विश्वासजी सारंग को भी आभार नमन करता हूँ I
मित्रो ! यदि इन समस्त तथ्यों के उपरान्त भी आपकी कोई जिज्ञासा रह जाती है तो मुझे सूचित कीजिएगा, मैं आपकी जिज्ञासा का उत्तर देने का प्रयास समग्रता करूंगा, हालांकि मैं अल्पबुद्धि भी हूँ I अस्तु, इस लम्बे आलेखनुमा समाधान पत्र में जो भी लिखा है, हिन्दी माता के श्रीचरणों में अपनी श्रद्धायुक्त पुष्पांजलि है I
प्रार्थना करिए कि हम विश्व गुरु बनें I प्रार्थना करिए कि हमारे देश के बच्चें अंगरेजी के आतंक से आत्मघाती नहीं बनें I भारतीय भाषाओं के विरुद्ध चल रहे कुत्सित प्रयासों को अपदस्थ करने में योगदान दीजिए, सक्रिय भागीदारी कीजिए I
मोदीजी का दिव्य सन्देश और सबकी सहभागिता से देश का विकास
मेरे व्यक्तिगत अभिमत में चिकित्सा शिक्षा जैसे जटिल विज्ञान को हिन्दी में प्रस्तुत करवा कर मोदीजी ने देशभर के समस्त शिक्षाविदों और शिक्षण संस्थानों को स्पष्ट रूप से यह सन्देश और संकेत दे दिया है कि हिन्दी [भारतीय भाषाओं] का ध्वज यदि हिमालय पर फहराया जा सकता है तो इंजीनियरिंग आदि तथा केजी, नर्सरी, विभिन्न स्तर की शालाओं में अंगरेजी के साम्राज्य को देश की 140 करोड़ जनता के हित में ध्वस्त कर दिया जाएगा I भविष्य में किसानों अथवा हिन्दी अथवा स्वभाषा में कम पढ़ें लिखें नागरिकों के नवाचारों और आविष्कारों को भाषाई कारणों से उपेक्षा और गुमनामी में नहीं जाने दिया जाएगा, देश के विकास में सौ प्रतिशत नागरिकों का योगदान सुनिश्चित किया जाएगा I हमारे कुटीर उद्योग फिर से जीवित होंगे, शहरों में धक्के खा रहे ग्रामीण पुनः गाँवों की तरफ लौटेंगे I अकल्पनीय बदलाव के साक्षी हम सब बनेंगे I मोदीजी का यह सुचिन्तित निर्णय परिवर्तन की धुरी बनेगा I
जयहिन्द, जय भारत, जय हिन्दी, वन्देमातरम्
— डॉ. मनोहर भण्डारी