ग़ज़ल
2212 1212 2212 22
मगरूरियत का जख्म यूँ गहरा हुआ सा है |
हर आदमी यहाँ लगे बिखरा हुआ सा है |
नश्तर चला रहा यहाँ इंसान पे इंसा –
हर ओर दहशतों भरा मौसम हुआ सा है |
नफ़रत के अंधकार में सूरज छिपा है अब –
चारों तरफ़ डरा डरा इंसा हुआ सा है |
इंसानियत गयी बदल बाकी रहा ना कुछ –
इंसान का वज़ूद क्यों छिछला हुआ सा है |
मज़बूरियाँ भी इस कदर थामे रही बाहें –
किस किस को दी सदाएं मन बहरा हुआ सा है |
बढ़ते रहे कदम मेरे मंज़िल नहीं राहें –
क्यों वक्त एक मोड़ पे ठहरा हुआ सा है ||
मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल’