गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

2212 1212 2212 22

मगरूरियत का जख्म यूँ गहरा हुआ सा है |
हर आदमी यहाँ लगे बिखरा हुआ सा है |

नश्तर चला रहा यहाँ इंसान पे इंसा –
हर ओर दहशतों भरा मौसम हुआ सा है |

नफ़रत के अंधकार में सूरज छिपा है अब –
चारों तरफ़ डरा डरा इंसा हुआ सा है |

इंसानियत गयी बदल बाकी रहा ना कुछ –
इंसान का वज़ूद क्यों छिछला हुआ सा है |

मज़बूरियाँ भी इस कदर थामे रही बाहें –
किस किस को दी सदाएं मन बहरा हुआ सा है |

बढ़ते रहे कदम मेरे मंज़िल नहीं राहें –
क्यों वक्त एक मोड़ पे ठहरा हुआ सा है ||
मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल’

*मंजूषा श्रीवास्तव

शिक्षा : एम. ए (हिन्दी) बी .एड पति : श्री लवलेश कुमार श्रीवास्तव साहित्यिक उपलब्धि : उड़ान (साझा संग्रह), संदल सुगंध (साझा काव्य संग्रह ), गज़ल गंगा (साझा संग्रह ) रेवान्त (त्रैमासिक पत्रिका) नवभारत टाइम्स , स्वतंत्र भारत , नवजीवन इत्यादि समाचार पत्रों में रचनाओं प्रकाशित पता : 12/75 इंदिरा नगर , लखनऊ (यू. पी ) पिन कोड - 226016