कविता
जो गया यहाँ से दुनिया से
वह भी तो नहीं बता पाता
कोई रोक नहीं पाता उसको
जाने वाला जब भी जाता
बस स्मृतियां रह जाती हैं
जो अपनों को अकुलाती हैं
फिर रंग बिरंगी दुनिया का
यह माया जाल है छा जाता
पढ़ रखा किताबों में हमने
है स्वर्ग कहीं है नर्क कहीं
पर इसकी सच्चाई क्या है
कोई भी नहीं बतला पाता
जिस दिन यह जान गया मानव
खुद को पहचान गया मानव
हमको तो असंभव लगता है
क्या हर मानव आता जाता
क्या देह बदलती है चोला
ज्यो मानव वस्त्र बदलता है
आत्मा पाएगी देह नई यह
प्रश्न सतत मन पर छाता
— मनोज श्रीवास्तव