गीतिका
शाख से टूटे हुए पत्ते बताते हैं व्यथा
कल हमारे दम से रौनक थी इसी गुलजार में
और सूखे फूल भी कहते हैं अपनी दास्तां
हम बहुत महंगे बिके थे कल इसी बाजार में
था कोई पुरनूर चेहरा भी हमारी बज्म में
तय है छप जाएगा यह भी एक दिन अखबार में
दोस्तों इस गलतफहमी में नहीं रहना कभी
और आएगा कोई कल फिर मेरे किरदार में
आजकल जो बो रहे हैं नफरतों की यह फसल
फूल दे जाएगा कोई कल उन्हें उपहार में
— डॉ./इं. मनोज श्रीवास्तव