लघुकथा

भूख

कुछ दिन पहले की बात हैं, जिग्या जो मेरे घर खाना बनाने आती थी,उससे मैं सहज स्वभाव बाते कर रही थी।उसने वैसे ही बोल दिया,” दीदी खाना खाने का कोई समय ही नहीं रहता हैं।जब खाने बैठो तो भूख गायब हो जाती हैं।“ मैंने समझाया,“ जब भूख लगे तभी खा लिया करो।” मेरे घर काम में मदद करने वाली सुमन हमारी बातें सुन रही होगी उसका नहीं अंदाज था हमें और नहीं ऐसे उत्तर की अपेक्षा।वह हाथ में झाड़ू लिए खड़ी थी और बड़े ही सामान्य भाव से बोली,” दीदी हमें तो जब भी खाना मिले भूख लग ही जाती हैं,कोई समय तय नहीं होता हैं।” मैं और जिज्ञा दोनों उसकी और भौचक्के से देखते रह गए और वह बुहारी मार कचरा इकट्ठा करने में व्यस्त हो गई थी।
— जयश्री बिरमी

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।