धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

अभेद सार्वजनिक प्रकृति पूजा है छठ महापर्व

छठ पर्व का समय चल रहा है। हम सभी जानते हैं कि यह संयुक्त पर्व दीपावली के उपरान्त चतुर्थी से सप्तमी तक चलने वाला चार दिवसीय महापर्व है। छठी मइया के संदर्भ में कई मतों के बीच सबसे उपयुक्त मत यह है कि यह षष्ठी तिथि का अपभ्रंश होकर छठी हुआ है। अर्थात् साक्षात् देव भगवान भास्कर और छठी मइया की पूजा पर आधारित है यह पर्व। भगवान सूर्य और छठी मइया के संबंध के बारे में भाई-बहन का रिश्ता लगभग सर्वमान्य है। पौराणिक गाथाओं में भगवान कार्तिकेय की पत्नी के रूप में छठी मइया वर्णित हैं जिनको नव देवियों में छठे दिन पूजनीय माता कात्यायनी भी माना जाता है। भगवान ब्रह्मा की मानस पुत्री भी हैं छठी मइया।

यह पर्व नवरात्रि भी भाँति एक साल में दो बार आता है। चैत्र शुक्लपक्ष और कार्तिक शुक्लपक्ष में उपरोक्त तिथियों को क्रमानुसार मनाया जाता है। रामायण काल में भगवान श्रीराम और माता सीता ने रावण बधोपरान्त छठ पर्व मनाया था। महाभारत काल में दानवीर कर्ण द्वारा भगवान सूर्य की उपासना का बहुत बार वर्णन है। पांचाली द्रौपदी द्वारा भी यह पर्व मनाया गया था। वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह पर्व इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि छष्ठी तिथि को सर्वाधिक प्रभावी नुकसान दायक पराबैगनी किरणों के कुप्रभाव को पानी में रहकर कम किया जा सकता है।

संतान की उत्पत्ति और कल्याण से सम्बंधित राजा प्रियवद की कथा भी प्रचलित है जिसमें कश्यप ऋषि ने यज्ञ के प्रसाद स्वरूप खीर दिया था। बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और बिहारियों से जुड़े समस्त क्षेत्रों में और कमोबेश विदेश में भी इस महापर्व की धूम रहती है।

वर्ण, जाति, क्षेत्र और भाषा का विभेद किए बिना यह महापर्व मनाया जाता है। जलाशय या नदी के किनारे विविधता में एकता का दर्शन किया जा सकता है। समस्त व्रती और भक्तजन श्रद्धा में आकंठ डूबे हुए देखे जा सकते हैं। स्वच्छता और प्रकृति पूजा को समर्पित यह महापर्व सनातन पर उठने वाले समस्त सवालों का रामबाण प्रत्युत्तर है। समस्त जीवों की रक्षा, समस्त वनस्पतियों के संरक्षण और सामूहिक भावना से ओत प्रोत होता है यह पर्व।

इस पर्व का प्रारम्भ “नहाय-खाय” से होता है जिसमें व्रती घर-बाहर और स्वयं की पूरी सफाई के बाद कद्दू की सब्जी व नये चावल का भात खाते हैं एवं दूसरों को भी प्रसाद स्वरूप बाँटते हैं। दूसरे दिन खीर-रोटी खाने का विधान होता है जिसे “खरना” भी कहते हैं। ध्यान रहे कि नया गुड़ व आटा तथा शुद्ध घी का प्रयोग होता है। तीसरे दिन डूबते हुए भगवान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है इस आस के साथ कि जल्दी ही मगवान सूर्य पुनः उगेंगे और चौथे दिन का अर्घ्य लेंगे। तीसरे और चौथे दिन के बीच व्रती 36 घंटे का निर्जला उपवास रखते हैं। यह पर्व पुरुष-महिला दोनों मना सकते हैं।

यह पर्व न केवल एक पर्व है बल्कि भारत की सनातनी आत्मा का वैज्ञानिक और सर्व जन हिताय दिग्दर्शन भी है। प्रकृति संरक्षण, वैज्ञानिकता, जीव व वनपति की रक्षा, कृषि को महत्व, कर्मठता, सामूहिक भावना, आंतरिक व बाह्य स्वच्छता, लिंग-समानता और किसी भी प्रकार के क्षुद्र भेद से परे होता है यह महापर्व। तीव्र गति से सुग्राह्य होता यह पर्व निःसंदेह कुछ ही वर्षों में दुनिया के हर क्षेत्रों में मनाया जाने लगेगा। मनमोहक लोक गीतों की कर्णप्रिय ध्वनियाँ नवरात्रि के बाद से ही गूँजने लगती हैं। आओ, चलो घाट पर चलें।

— डॉ अवधेश कुमार अवध

*डॉ. अवधेश कुमार अवध

नाम- डॉ अवधेश कुमार ‘अवध’ पिता- स्व0 शिव कुमार सिंह जन्मतिथि- 15/01/1974 पता- ग्राम व पोस्ट : मैढ़ी जिला- चन्दौली (उ. प्र.) सम्पर्क नं. 919862744237 [email protected] शिक्षा- स्नातकोत्तर: हिन्दी, अर्थशास्त्र बी. टेक. सिविल इंजीनियरिंग, बी. एड. डिप्लोमा: पत्रकारिता, इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग व्यवसाय- इंजीनियरिंग (मेघालय) प्रभारी- नारासणी साहित्य अकादमी, मेघालय सदस्य-पूर्वोत्तर हिन्दी साहित्य अकादमी प्रकाशन विवरण- विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन नियमित काव्य स्तम्भ- मासिक पत्र ‘निष्ठा’ अभिरुचि- साहित्य पाठ व सृजन