गांव की याद रह रह के, हाय जिया रूलाती है।
तड़प सीनें में उठती है, गांव की याद आती है।
शहर की हवा जरीली सभी की सांस घुटती है,
कंकरीट के महलों में, न सौंधी खुशबू आती है।
लहलहाते खेत गांव के, कुंए से पानी भर लाना,
किये घुंघट नई नारी, मुडेर की रौनक बढ़ाती है।
यहाँ रिवाज हैं बदले , शहर पाश्चात्य में है डूबा ,
नंगे सिर बहू घूमें, नहीं माथे सिंदूर लगाती है।
चौपाल गांव की महकती, गप्प छप्प बुजुर्गों की,
हंस्सीं ठिठोली में जिंदगी गांव की बीत जाती है।
शहर में बंद किये दरवाजे सभी तो लोग रहते हैं,
सभ्य गांव है अपना,अतिथि को शीश झुकाती है।
तड़प उठती है मिलने को नहीं यहाँ कोई अपना,
गांव में घुट के मिलना प्यार की रीत सीखाती है।
गांव का दर्द है सांझा, नहीं वो बात शहरों में,
शहर की यारी है झुठी, गांव हर रस्म निभाती है।
तड़प मन में उठती है, सुनने को सुर कोयल का,
वो शाखा आम की घर की, जहाँ कोयल गाती है।
— शिव सन्याल