औरत
औरत हूं शायद इसलिए
बार-बार तोड़ती हूं
तुमसे मिले दर्द और उसके पश्चात
अपने भीतर किए निश्चय,वादे को
और पुनः तुम्हारे प्रेम की हल्की सी कंपन करती लहरों में
खुद को बहाने को तैयार हो जाती हूं
हर बार खुद को भ्रमित कर
तुम्हारे उंगलियां में उंगलियां फंसा लेती हूं
ऐसा कर खुद से नाराजगी भी होती है
मेरा मन भी मुझसे नहीं बोलता
अकेलेपन की सनसनी आवाजे
मुझे चिढ़ाकर कानों में शोर करती है।
ये कैसा निश्चय ये कैसा वादा ??
मैंने महसूस किया ! और लिखा
वैसे हर नारी जो प्रेम जीती है
जानती है !
धरती पर प्रकृति का होना जितना सच है
प्रेम का का होना
प्रेम में पड़ी स्त्री
और उसका विशाल हृदय
आसमान जैसा गहरा होता है
वह शहनशीलता की अंतिम सीढ़ी तक
अपने को खिंचती रहती है
भले ही इस दौरान वह खुद
पत्थर में तब्दील क्यों न हो जाए
मंजूर है
प्रेम में पड़ी स्त्री जानती है
प्रेम में आंसू है
और आंसू में दर्द
फिर वह इन एहसासों में बंधना चाहती है
क्योंकि वह सिर्फ
प्रेम करना जानती है
— बबली सिन्हा ‘वान्या’