शांति
जगती के बहु कष्ट कराल।
प्रखर अग्नि सम ये विकराल।
चहुँदिशि छाया है आतंक।
वसुधा का यह घोर कलंक।
नहीं प्रेम की शीतल छाँव।
दहक रहा कटुता का भाव।
बिलख रहा है यह संसार।
छलक रही वेदना अपार।
छाया है तमिस्र घनघोर।
कालरात्रि विहँसे चहुँओर।
लड़ें परस्पर राष्ट्र अनेक।
कौन मिटाए यह अविवेक?
शांति कहीं रोती चुपचाप।
उसके माथे पर अभिशाप।
दहक रही हिंसा की आग।
जाग निठुर मानव अब जाग।
सतत भड़कते हैं अंगार।
बहती सदा लहू की धार।
बंधु-बंधु में बढ़ता द्वेष।
विषमय हुआ सकल परिवेश।
नारी सहती है अपमान।
पशुता है यह क्रूर महान।
साँसें तोड़ रही है आस।
पतझड़-सा रोता मधुमास।
आँसू झरते बारंबार।
मन में उमड़े व्यथा अपार।
कब होगा जग का उद्धार?
कैसे मिटे धरा का भार?
आएगा कब देव महान?
उर में लिए शांति का गान।
जिसमें घुल-घुल जाएँ प्राण।
मिले तप्त जीवन को त्राण।
हरि से पाएँ यह वरदान।
मिले मनुजता को सम्मान।
मिट जाए जग का परिताप।
शीतल हो उर का संताप।
जग में सबका हो कल्याण।
खुले बंध,खिल जाएँ प्राण।
सेवा में होकर तल्लीन।
रच दें हमसब सृष्टि नवीन।
रचनाकार–निशेश अशोक वर्धन
उपनाम–निशेश दुबे