कहानी

निक्की

उन्होंने मुझे पुछे बगैर एक सत्र का मुख्य वक्ता बता दिया था ऐसे मे नाराज होने के बावजूद मुझे अपने स्टेटस को बचाए रखने के लिए जाना ही था । दूसरी कोई स्थिति होती तो यह मेरे लिए सोभाग्य की बात थी की मैं जिस कालेज मे बीस साल पहले पढा था वहा हो रहे एक साहित्यिक समारोह मे बुलाया गया था लेकिन इस कालेज मे जाना मेरे लिए दर्दभरा था इसके चप्पे-चप्पे मे मेरी यादें है । जिनको देखकर मैं भरभराकर गिर सकता हूॅ ।
जैसे ही कालेज के साईकल स्टेंड मे पहुंचा आंखे गीली हो गई जहां मेरी और उसकी साईकिल रखी रहती थी वहा आज भी वैसी ही साईकिलें रखी थी एक लेडिज और दूसरी जेंन्टस । मुझे निमंत्रण देने वाली, बार-बार आग्रह करने वाली रीना मेरे स्वागत मे खडी थी हमने हाथ मिलाया और हॉल मे पहुचं गए वहा भी मेरा मंच संचालक ने स्वागत किया ।
उदघाटन खत्म होने के बाद वहा मौजुद एक स्थानीय साहित्यकार ने कहा की चलों कालेज का चक्कर लगाते है मेरे मना करने पर वह बोला की मैं भी इसी कालेज मे पढा हूॅ यहा से जुडी मेरी कुछ यादे है जिनको ताजा करना चाहता हूॅ तो मुझे उसके साथ चलना ही पडा ।
मैंने स्नातकोत्तर समाजशास्त्र के लिए प्रवेश लिया था हमारी कक्षाएं जिस कक्ष मे लगती थी उसके आगे से मैं गुजरा तो अपने आप मेरे कदम कक्ष मे चले गए जहां मैं और निक्की पास -पास बैठते थे उस जगह निगाहे गई आज भी टेबल-कुर्सिया वही जमी थी लगा की मेडम टोक रही थी की तुम दोनों इधर ध्यान दो ,पढाई जरूरी है हम दोनों कुछ देर चुप रहते और फिर वही होता । मैडम हंस देती और बोलती क्लास मे 10 तो स्टुडेंट हो और दो बातें करते हो ।
हम दोनों आगे बडे बरामदे मे मुझे निक्की के सेंडल की ढक-ढक सुनाई देने लगी लगा की वो अपने सोन्दर्य से पूरे कालेज को दबा रही है सच भी है की उसकी सुन्दरता के चर्चे पूरे शहर मे थे ज्यादातर युवा उसको देखते तो देखते ही रह जाते थे उससे दोस्ती करने, बात करने को तरसते थे वैसे वह फ्रेंक थी हर किसी से हंस-बोल लेती थी लेकिन बहुत ही कम लडके उससे बात करने की हिम्मत कर पाते थे ।
हम लोग कालेज के पिछे बनी कंेटिन की तरफ गए साथी साहित्यकार कुछ बोल रहा था शायद अपनी यादों को शब्द दे रहा था लेकिन मैं अपनी यादों के साथ था पेड के निचे बने चबूतरे की तरफ देख रहा था जहां मैं और निक्की रोजाना बैठते थे खूब हसंते बाते करते थे प्रेम करते थे एक -दूसरे को जानबुझकर छू लेते थे कई बार तो एक दूसरे हो घायल कर देते थे बाद मे माफी मांग लेते थे । वह टिफिन लेकर आती थी हम साथ-साथ खाते थे केंटिन मे जाता और उसकी पसन्द के गरम-गरम समोसे ले आता ।
एक दिन कालेज मे एनएसएस का प्रशिक्षण देने लेप्टिनेंट आया ओर हम दोनों को यही बैठे देखकर बोले तीन दिन मे पहली बार लगा की यह कालेज है वरना किसी लडके-लडकी को एक साथ बैठे नहीं देखा है । हम दोनों हंस दिए । तब हमे लगा की कालेज, शहर मे हमारे प्रेम की चर्चा कितनी होगी । पता नहीं कब दो साल निकल गए और हम विदा हो गए इस बीच उसके पिताजी का स्थानान्तरण हो गया ओर वह चली गई हमारी बातें अधुरी ही रह गई कस्में ,वादे, बिखर गए कुछ भी कहा नहीं जा सका था ।
और आज बीस साल बाद फिर यहा आना इस पेड को देखना और सब कुछ दोहरा जाना दर्दभरा था मेरे साथ के साहित्यकार ने कहा चलों उस पेड के नीचे बैठते है और वह खिंचते हुए ले गया वहा एक प्रोढा बैठी थी हमे देखते ही वह खडी हो गई मैं अचम्भित था आगे बढा ओर उसे आलिंगन कर दिया ।
— भारत दोसी