ग़ज़ल “पहाड़ों के मचानों पर”
ॉबनाये नीड़ हैं हमने, पहाड़ों के मचानों पर
उगाते फसल अपनी हम, पहाड़ों के ढलानों पर
—
मशीनों से नहीं हम हाथ से रोज़ी कमाते हैं
नहीं हम बेचते गल्ला, लुटेरों को दुकानों पर
—
बशर करते हैं अपनी ज़िन्दग़ी, दिन-रात श्रम करके
वतन के वास्ते हम जूझते, दुर्गम ठिकानों पर
—
हमारे दिल के टुकड़े, होटलों में माँजते बर्तन
बने दरबान कुछ लड़के, सियासत के मुकामों पर
—
पहाड़ी “रूप” की अपने, यही असली कहानी है
हमारी तो नहीं गिनती, चमन के पायदानों पर
—
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)