हिन्दी की सार्वभौम प्रतिष्ठा के लिए समर्पित प्रयास जरूरी
हिन्दी को जन-जन के हृदय की भाषा बनाने के लिए भाषणों और आडम्बरों से परे रहकर दृढ़ इच्छाशक्ति और आत्मीय-समर्पित भाव से वास्तविक प्रयासों को अपनाना होगा। इसके लिए परस्पर वैमनस्य और उच्चाकांक्षाओं भरे मुखौटावादी व्यक्तित्व को तिलान्जलि देकर हिन्दीसेवियों को स्वस्थ मन और पवित्र भावना से आगे आना होगा।
हिन्दी का विकास समय की महती आवश्यकता है। हिन्दी सेवियों को चाहिए कि वे मिशन भावना से हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं विकास का बीड़ा उठाएं और विश्व क्षितिज पर फैलाएं।
सशक्त भारत की कल्पना तभी मूर्त रूप ले पाएगी जब हमारा देश अपनी राष्ट्र भाषा हिन्दी को विश्व मंच पर यथोचित गरिमा और गौरव के संस्थापित करेगा।
आजादी के इतने दशकों बाद भी हम अंग्रेजी की मानसिक गुलामी से बुरी तरह जकड़े हुए हैं, आज भी महत्वपूर्ण कार्यक्रम अंग्रेजी में होते हैं। हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानने के बावजूद हम उसे उचित सम्मान तक नहीं दिला सके हैं।
हुई षड़यंत्रों का शिकार
जब से भारत का सारा शासन तंत्र अंग्रेजों के हाथ लगा तभी से हिन्दी पर कहर बरपाया जाने लगा एवं इसके साथ ही देश की सभ्यता-संस्कृति और दीर्घकालीन प्रगति के तमाम आधारों को समाप्त किया जाने लगा। तब देश में अंग्रेजी का साम्राज्य शुरू हो गया। ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें जमाने और शिक्षालयों को क्लर्क बनाने की फैक्ट्रियां बनाने लार्ड मैकाले ने भारत की शिक्षा-नीति ध्वस्त कर दी।
भारत की आजादी के संग्राम में राष्ट्र जागरण और प्रेरणा संचार में हिन्दी की अहम् भूमिका रही है। जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत आदि ने अपनी ओजस्वी काव्य कृतियों से देश में स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रचार-प्रसार हिन्दी में ही किया, जिससे समूचे देश में आजादी पाने का जुनून ज्वार की तरह उमड़ आया। इन सबके बावजूद परवर्ती शासन की उदासीनता के चलते आज भी हिन्दी दिवस पर आंसू बहाने लायक स्थिति है, जो चिन्ता का विषय है।
हिन्दी व्याकरण की वैज्ञानिक कसौटी पर खरी, संस्कारों से परिपूर्ण, समृद्ध इतिहास की जननी और उदारता प्रधान भाषा है। विश्व में संस्कृत के बाद इस तरह की कोई भाषा नहीं है।
हिन्दी सेवा का संकल्प लें
हिन्दी के विकास में आड़े आ रही बाधाओं को आज दूर करने की जरूरत है। हिन्दी भाषी कार्यक्रमों में भी कई बार अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं का इस्तेमाल किया जाता है, जो अनुचित है। आजादी के दिनों में सम्पर्क भाषा के रूप में स्वतंत्रता सेनानियों को हिन्दी के कारण ही सम्बल प्राप्त हुआ और विभिन्न प्रान्तों एवं रियासतों से इसके जरिये आत्मीय सम्पर्क स्थापित हो सका। आज हरेक कार्य को हिन्दी में करने के संकल्प लेने की आवश्यकता है। यही सच्ची हिन्दी सेवा है।
खूबियों से भरी है हमारी हिन्दी
हिन्दी कई खूबियों से भरी हुई भाषा है। क्षेत्र, समाज और सम्प्रदायों की संकीर्ण परिधि से दूर हिन्दी सदैव समृद्ध रही है, प्राचीन भक्त-कवियों और साहित्यकारों में सूर, तुलसी, रहीम, केशव, निराला, महादेवी, निराला, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महावीर प्रसाद, दिनकर, प्रेमचन्द, प्रसाद, भारतेन्दु, गुप्त आदि ने लोक चेतना का ज्वार उमड़ाया और आजादी के समय तथा बाद में साहित्य संसार को अपनी ज्ञानराशियों से जगमगा दिया। आज वे विलक्षणताएं लुप्त होती जा रही हैं।
हिन्दी जितनी माधुर्यपूर्ण, सरस, भावप्रवण एवं सुबोधगम्य है, उतनी कोई अन्य भाषा नहीं। आज के कवि, लेखक और साहित्य सर्जक ही हिन्दी के विकास में बाधक तत्व हैं। ये लोग हिन्दी के नाम पर कमाते-खाते, सम्मान पाते और प्रतिष्ठा के साथ लोकप्रियता और लाभों में रमे रहते हैं किन्तु सच्चे मन से हिन्दी के लिए कुछ कर नहीं पा रहे हैं, केवल दिखावों में हुए हैं अन्यथा हिन्दी आज सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुकी होती।
दिखावों से परे रहकर हिन्दी सेवा जरूरी
आडम्बरपूर्ण व्यक्तित्व, हिन्दी के नाम पर सरकारी प्रश्रय, सरकारी धन की लूट-खसोट और मंचीय मोह से ग्रस्त स्व-विकास के धुनी इन लोगों ने कभी हिन्दी के विकास की परवाह नहीं की बल्कि हिन्दी को कमाई का जरिया बनाकर अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति की।
देश-काल, परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप परिवेश-समाज की साफ तस्वीर से उपजा साहित्य ही लोक मानस को प्रभावित कर सकता है, राज्याश्रय या लोभ-लालच से रचित साहित्य न तो कालजयी हो सकता है और न ही किसी तरह का प्रभाव छोड़ पाता है।
हर कहीं हो अनिवार्यता
हिन्दी के विकास के लिए राजकीय आयोजनों, नियमों, आदेशों, राज-काज की प्रत्येक कार्यप्रणाली में हिन्दी के प्रयोग को पूर्णतः अनिवार्य करने की आवश्यकता है। हिन्दी के माध्यम से ही राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा की जा सकती है और विकास को आम जन तक पहुंचाया जा सकता है।
हिन्दी के संरक्षण एवं संवर्धन पर सर्वाधिक काम करने की जरूरत है। सीमाओं की रक्षा से भी अधिक राष्ट्र भाषा की रक्षा जरूरी है क्योंकि वह विदेशी आक्रमणों को रोकने में पर्वतों और नदियों से भी अधिक सामर्थ्यशाली होती है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और मुंशी प्रेमचन्द को उद्धृत करते हुए चर्चा की जाए तो उन्होंने स्पष्ट मंतव्य व्यक्त किया था कि ‘जब तक हमारे पास अपनी राष्ट्रभाषा नहीं, अपना कोई राष्ट्र भी नहीं।’
देशी-विदेशी हस्तियों की उपेक्षा भोगी हिन्दी ने
हिन्दी के विकास में विदेशियों ने सुनियोजित ढंग से बाधाएं पैदा कीं। लार्ड मैकाले ने 1935 में अंग्रेजी के महत्व को इंगित करते हुए हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को अवैज्ञानिक करार दे दिया और भारतीय विद्यालयों में अंग्रेजी अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाने लगी, जिसे निजी तथा राजनैतिक हितों को ध्यान में रखकर सभी वर्गों के अभिजात्य वर्ग, राजा-महाराजा, जमींदार एवं धनाढ्य वर्ग ने राष्ट्रहित की परवाह किए बगैर सादर व सहर्ष अंगीकार कर लिया।
ग्रियर्सन के कुटिल वाक्य ‘भारत भाषाई तौर पर एक राष्ट्र नहीं है’ का ही प्रतिफल है कि लार्ड डलहौजी से लेकर नेहरु और दूसरे सारे महान लोग तक सहमत हो गए और इसके परिणमस्वरूप हिन्दी को देश की राजभाषा स्वीकार करने के साथ अनिश्चित काल तक अंग्रेजी सह राजभाषा मानी गयी। किन्तु व्यवहार में अंग्रेजी प्रभुत्व तथा हिन्दी गौण भाषा होकर रह गई।ऐसे में दिन-ब-दिन हिन्दी की राह दुरूह होती जा रही है।
जन-जन की सहभागिता है जरूरी
अंग्रेजी का दबाव बनाए रखकर कुछ निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा किए जा रहे कुत्सित प्रयासों का विरोध करते हुए हम सभी भारतीयों को इन सभी षडयंत्रों का तीव्र विरोध करते हुए आगे आने की आवश्यकता है। हिन्दी प्रेमियों को चाहिए कि वे हिन्दी विकास के लिए संघर्ष को और अधिक तेज करें और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में हो रहे प्रयत्नों में भागीदारी निभाएं।
आज संकीर्णताओं के कारण हिन्दी के विकास में कई प्रकार की बाधाएं सामने आ रही हैं। इन्हें दूर करते हुए हिन्दी के व्यापक हित में सोचने की आवश्यकता है अन्यथा हिन्दी का स्वरूप क्षत-विक्षत होता चला जाएगा और हिन्दी संसार तथा साहित्य संसार खेमों में बंटता चला जाएगा, इसका सीधा असर राष्ट्रीय अस्मिता पर पड़े बिना नहीं रह सकता। हिन्दी के ज्ञान के बगैर किसी को राष्ट्रीयता प्रदान नहीं की जानी चाहिए।
— डॉ. दीपक आचार्य