“दाँव-फन्दे आ गये”
जंगलों में जब दरिन्दे आ गये।
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
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पूछते हैं वो दर-ओ-दीवार से,
जिन्दगी महरूम क्यों है प्यार से?
क्यों दिलों में भाव गन्दे आ गये?
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
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हो गया क्यों बे-रहम भगवान है?
हो गया नीलाम क्यों ईमान है?
हबस में मशगूल बन्दे आ गये।
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
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जुल्म की जो छाँव में हैं जी रहे,
जहर को अमृत समझकर पी रहे,
उनको भी अब दाँव-फन्दे आ गये।
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)