दोहागीत “खादी का परिधान”
आज विदेशी जाल में, जकड़ा हिन्दुस्तान।
दूर गरीबों से हुआ, खादी का परिधान।।
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चरखे-खादी ने दिया, आजादी का मन्त्र।
बन्धक अर्वाचीन में, अपना प्यारा तन्त्र।।
देश-भक्ति का हो रहा, पग-पग पर अवसान।
दूर गरीबों से हुआ, खादी का परिधान।।
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करता है सूरजमुखी, सरसों का उपहास।
खेतों में बोते नहीं, अब तो लोग कपास।
शिकवें और शिकायतें, किससे करें किसान।
दूर गरीबों से हुआ, खादी का परिधान।।
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लोग समझते ही नहीं, कुदरत के संकेत।
वसुन्धरा बंजर हुई, सिमट रहे हैं खेत।।
आज उर्वरा भूमि पर, बनते भव्य मकान।
दूर गरीबों से हुआ, खादी का परिधान।।
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चाव विदेशों का लगा, नवयुवकों को आज।
कोलाहल संगीत में, दबे देश के साज।।
आग भले ही बुझ गई, सुलग रहे अरमान।
दूर गरीबों से हुआ, खादी का परिधान।।
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थाली से गायब हुई, हलवा-पूड़ी खीर।
पिज्जा-बर्गर शान से, खाने लगे अमीर।।
रास नहीं आते हमें, अब देशी पकवान।
दूर गरीबों से हुआ, खादी का परिधान।।
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)