लंच टाइम (विजेता लघुकथा)
“सुनती हो जी!”
“सुनती ही तो रहती हूं जी, सुनाइए, आज क्या सुना रहे हैं!”
“आज सब्जी क्या बनाई है, सुबह तोरई छील रही थीं!”
“तोरई छील रही थी, तो तोरई ही बनाई होगी न!”
“तुम्हें कोई और सब्जी तो मिलती नहीं, बस तोरई बना देती हो या फिर बेगुन!”
“इतने पढ़े-लिखे हैं, तोरई खाने के लाभ तो आप जानते ही होंगे और भले ही बैंगन को बेगुन कहो, इससे उसके गुण तो कम नहीं ही हो जाएंगे!”
“बस-बस अब बैंगन पुराण मत खोल देना, डायबिटीज में लाभकारी, हृदय के लिए लाभकारी, याददाश्त बढ़ाने में सहायक आदि-आदि! सौ बात की एक बात है, कि आज मेरा लंच मत बनाना, खा लेना तुम तोरई-वोरई. मैं देवेश के पास जा रहा हूं, वहीं खा लूंगा! भाभी जी के हाथ का स्वाद ही कुछ और है!”
“अच्छा जी, क्या मैं आपके प्रिय मित्र को फोन लगा दूं? वहां मौज करना, मतीरे फोड़ना.”
सूट-बूट डाटके साहब तो चल दिए देवेश के पास, मेम साहब हमेशा की तरह रोटी-चावल बनाने में व्यस्त हो गईं. लंच का टाइम हुआ जा रहा था. रोटी-चावल बने ही थे कि कॉल बेल घरघराई.
“आइए साहब, कर आए मजे!”
“खाक मजे कर आया, वहां भी तुम्हारी तोरई बनी थी, ऊपर से देवेश का तोरई के फायदों पर भाषण! इससे अच्छा तो घर की तोरई ही खा ली जाए! तुमने तो खाना खा ही लिया होगा!”
“ऐसे तुम्हारे बिना कभी खाया है, जो आज खा लेती! बैठिए मैं खाना लगा देती हूं.”
“वाह, तोरई तो बड़ी चटपटी और करारी बनी है!” उंगली चाटते हुए साहब ने फरमाया.
“आपकी चटपटी और करारी बातों से ये तो होना ही था! लीजिए अब मीठी खीर भी खाइए.” खीर परोसते हुए मेम साहब ने कनखियों से देखा.
“बिलकुल तुम्हारी मीठी मुस्कान की तरह!”
लंच की तरह लंच टाइम भी मीठा हो गया था!