पूर्वोत्तर भारत में आध्यात्मिक सूर्योदय के अग्रदूत थे स्वामी विवेकानन्द
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते। जी हाँ, राजा की पूजा उसके देश में होती है वो भी भय से इसके विपरीत विद्वान् की पूजा दुनिया भर में होती है वो भी पूरी श्रद्धा से। उन्नीसवीं शताब्दी का अंत और बीसवीं शताब्दी की शुरुआत एक ऐसे परिवेश में हुई जिसमें अधिकांश दुनिया परतन्त्र थी। न केवल भौगोलिक अपितु धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से हमारा देश भी गुलाम था। धर्म के नाम पर पाखंड, कुप्रथाएँ और रुढ़ियाँ मनुष्यता पर भारी थीं। अतीत कालीन विश्वगुरु और सोने की चिड़िया के रूप में संज्ञा प्राप्त भारत की गुरुता मृतप्राय हो रही थी और सोने की चिड़िया से सोना नदारद था। बहुमुखी समस्याओं से जूझते भारत में समय-समय पर जागरण अभियान एवं आन्दोलन चलाए जाते किंतु सब ऊँट के मुँह में जीरा साबित होते…..अपर्याप्त थे। इसी बीच कलकत्ता में 13 जनवरी सन् 1863 को एक शिशु ने जन्म लिया जिसका नाम नरेन्द्र नाथ दत्त रखा गया। ज्यों-ज्यों नरेन्द्र नाथ दत्त बड़े होते गए, उनकी यशोकीर्ति बढ़ती गई। रामकृष्ण परमहंस उनके गुरु हुए और नरेन्द्र नाथ दत्त स्वामी विवेकानन्द बन आए। इस सपूत के पाँव पालने में ही परिलक्षित होने लगे। स्वामी जी ने अपने गुरु के नाम पर रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जिनकी संख्या दुनिया भर में अब बढ़कर 177 से अधिक हो गई है।
11सितम्बर 1893 को शिकागो, अमेरिका में धर्म सम्मेलन रखा गया था जिसमें सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व स्वामी जी ने किया। इसमें तीन प्रमुख बातों को बताना आवश्यक हो जाता है। अमेरिका यात्रा के दौरान 30 वर्षीय स्वामी जी से 54 वर्षीय टाटा जी की मुलाकात हुई। बातों के दौरान स्वामीजी ने उन्हें भारत में स्टील फैक्ट्री और रिसर्च यूनिवर्सिटी स्थापित करने का सुझाव दिया। टाटा जी ने दोनों कार्य करके दिखाया। कहना नहीं पड़ेगा कि भारत की उन्नति में इन दोनों संस्थानों का कितना योगदान है! दूसरी प्रमुख घटना हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट से मुलाकात की है। जब जॉन हेनरी को पता चला कि धर्म संसद में स्वामी जी को प्रवेश की अनुमति परिचय पत्र के अभाव में नहीं मिल पा रही है तो उन्होंने कहा कि, “आपका परिचय मांगना ठीक उसी तरह है जैसे सूर्य से स्वर्ग में चमकने के लिए उसके अधिकार का सबूत मांगना।” तीसरी घटना धर्म संसद में अप्रतिम सम्बोधन से जुड़ी है। स्वामी जी ने अपने सम्बोधन में कहा, ” अमेरिका के बहनों एवं भाइयों,- मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से धन्यवाद देता हूँ। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की ओर से धन्यवाद देता हूँ और सभी जाति, सम्प्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूँ………।” इसके साथ ही पाखंडरहित और वैज्ञानिक अवधारणाओं पर आधारित सनातन धर्म और वेदांत से स्वामीजी ने पूरी दुनिया को भली- भाँति परिचित कराया। स्वामीजी का प्रवचन न केवल स्वामीजी के लिए बल्कि सारी दुनिया के लिए अविस्मरणीय बना। भारत की धार्मिक साख का लोहा विश्व ने माना। भारत माता फूले न समायी अपने विलक्षण सपूत के वैश्विक उन्नयन पर। गिरते स्वास्थ्य पर भारी असीम जोश ने स्वामीजी को सदैव सकारात्मक एवं आशिन्वित रखा। उन्होनें एक बार कहा भी था कि, ” खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।”
धर्म के प्रति स्वामी जी की राय सदैव बहुत व्यापक और समभाव की है। धर्म/ सम्प्रदाय को उन्होंने सद्भावना और दुर्भावना का सबसे बड़ा और प्रबल कारण माना। समाज को नियन्त्रित करने में धर्म की भूमिका सर्वाधिक है। सच्चा धर्म वही है जिसमें सबको अपनाने की क्षमता हो। किसी का कोई आराध्य हो सकता है, हमसे पृथक धर्म ग्रंथ हो सकता है किन्तु उसको उसी रूप में स्वीकार करना ही सर्वोत्तम धर्म है और मानवता भी। जब धर्म में अविवेकी और बौद्धिक रूप से अंधे लोग सशक्त हो जाते हैं तो यही धर्म समाज में अविश्वास और अराजकता फैलाने का साधन बन जाता है। स्वामी जी धार्मिक सहिष्णुता को सीमित अर्थ में देखते थे। सहिष्णुता में दया के साथ स्वीकारोक्ति का आशय निहित होता है अर्थात् जब हम अपने से पृथक धर्म वाले को सहज होकर नहीं अपनाते बल्कि दया करके या एकता की मजबूरी में अपनाते हैं तो वहाँ धार्मिक सहिष्णुता प्रभावी होती है। यह धार्मिक सद्भाव की अपेक्षा बेहद संकुचित अवधारणा है। उन्होनें यह भी बताया कि,”सत्य को हजार तरीके से बताया जा सकता है फिर भी हर एक सत्य ही होगा।” इसका आशय है कि सबकी मंजिल एक होनी चाहिए, रास्तों की परवाह मत करो। चलने दो सबको पसंदीदा रास्तों से, चुनने दो मनवांछित तरीका। अंत में सबको पहुँचना है एक ही गंतव्य पर।
भारत का पूर्वोत्तर भू-भाग सांस्कृतिक प्रयोगशाला के रूप में आज भी जाना जाता है। इसका सम्बंध प्राचीन काल में महाभारत के प्रमुख पांडव पात्रों से रहा है। अर्जुन और भीम की शादियाँ यहाँ भी हुई थीं। महावीर घटोत्कच और महात्मा बर्बरीक इसी पावन भूमि की पैदाइश थे। बाणासुर-कृष्ण के महासंग्राम के उपरान्त उषा – अनिरुद्ध की प्रेम कहानी जीवंत हुई। शक्तिपीठ कामाख्या और जयन्तिया देवी का सम्बंध भी शेष भारत से अटूट रहा है। यहाँ ब्रह्मर्षि वशिष्ठ का आश्रम होना भी धार्मिक भावना के उत्थान का द्योतक है। मुगलों से हर बार यद्यपि यह भू भाग विजयी रहा तथापि संग्राम ने विकास को अवरुद्ध किया। परिणाम स्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी का चरणांत पूर्वोत्तर को कई अर्थों में कमजोर कर रखा था। जाति, भाषा, बोली, क्षेत्र, उपक्षेत्र, कबीले आदि में असंगठित तत्कालीन बड़ा असम राज्य की राजधानी शिलॉंग (शिवलिंग) थी। हिंदू, मुस्लिम और ईसाई धर्म के त्रिकोण पर अवस्थित त्रिशंकु पूर्वोत्तर भू भाग पर स्वामीजी का चरण पड़ना नितांत आवश्यक था। सुप्तप्राय सनातनी आध्यात्मिक/सांस्कृतिक चेतना के पुनर्जागरण हेतु स्वामी जी अप्रैल-मई 1901 में सर हेनरी कॉटन के आमन्त्रण पर शिलॉंग आना स्वीकार किए। इसका एक कारण यहाँ की स्वास्थ्यप्रद जलवायु का होना भी था।
स्वामीजी की शिलॉंग यात्रा पूर्वोत्तर के लिए एक कान्तिकारी कदम थी। श्रीमंत शंकर देव के बाद मूल सनातन अवधारणा से जनता विमुख हो रही थी। श्रीमंत का आधार केवल भक्ति था और भक्ति से वही प्रभावित हो सकता है जिसके भीतर इसका प्रादुर्भाव हो, वैज्ञानिक सोच रखने वालों को वैज्ञानिक आधार चाहिए। पाखंडवाद के चंगुल में वेदांत दम तोड़ रहा है। स्वामी दयानन्द का “वेदों की ओर लौटो” के आह्वान से भी पूर्वोत्तर अछूता ही था। स्वामीजी अपने परिजनों एवं शुभचिंतकों के साथ 18 मार्च 1901 को जलमार्ग द्वारा ढाका के लिए प्रस्थान किये। तदनन्तर 5 अप्रैल 1901 को ढाका से कामाख्या के लिए चल दिये और कामाख्या में एक पंडा के घर रुके। यहाँ उनकी मुलाकात पद्मनाथ भट्टाचार्य से हुई और गुवाहाटी में स्वामीजी के तीन अनमोल प्रवचन भी हुए।
तदुपरान्त स्वामी जी गुवाहाटी से शिलांग के लिए चल पड़े। अस्वस्थ थे लेकिन यहाँ आने का मोह संवरण न कर सके। घोड़ागाड़ी पर उनके साथ उनके घर वाले भी थे। उनकी गाड़ी के अगल- बगल पैदल चल रहे थे शिलॉंग के जमींदार राय साहब कैलाश चन्द्र दास और ज्योतिन्द्रनाथ बसु। शायद समय को इंतजार था एक विशेष अध्याय लिखने का या संचेतना क्रांति के बीज- रोपण का। स्वामी जी के ही शब्दों में, “उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये।” इस तरह स्वामी जी शिलांग में जमींदार केसी दास के आग्रह पर उनके घर ठहरे।
27 अप्रैल 1901 का दिन स्वर्णाक्षरों में अंकित है। इसी दिन तत्कालीन असम के मुख्य आयुक्त सर हेनरी कॉटन, अंग्रेज हुक्मरान और स्थानीय जनता के समक्ष क्विंटन मेमोरियल हॉल में स्वामीजी के प्रवचन ने इतिहास रचा। अब वह हॉल रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द सांस्कृतिक केन्द्र के नाम से सुविख्यात है।
पूर्वोत्तर में 20-25 दिन रहकर स्वामी जी पुन: कोलकाता वापस हो गये। उनका यह कथन विचारणीय है कि, ” आत्मा से अच्छा कोई शिक्षक नहीं। दिल और दिमाग के टकराव में दिल की सुनो।” कमजोर स्वास्थ्य के कारण फिर बड़े स्तर पर प्रवचन करने में असमर्थ रहने लगे। 4 जुलाई 1902 को बेलुर मठ, हावड़ा में स्वामी जी नश्वर शरीर को त्यागकर परब्रह्म में विलीन हो गये। इन्होंने अस्पृश्यता का सदैव विरोध किया तथा साथ ही मानवता का पोषण किया। उनकी विचारधारा पूर्णत: वैज्ञानिक थी। उनका कहना था कि ‘तर्क की कसौटी पर कसकर किसी तथ्य को परखो, फिर मानों। आँख मूँदकर सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास न करो।’ आत्मबल पर विशेष बल देते हैं। एक बार उन्होंने कहा था कि, “जब आप खुद पर विश्वास नहीं करते, आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते।” स्वामी जी स्पष्ट विचारधारा और ढृढ़ी व्यक्तित्व के स्वामी थे। महाप्रस्थान के 118 वर्षों के बाद भी स्वामी जी सबके मन मस्तिष्क में बसे हुए हैं। उनकी 150वीं जन्म वर्षगाँठ और शिलॉग में प्रवचन की 112वीं वर्षगाँठ पर भव्य आयोजन का किया जाना उनके प्रति असीम श्रद्धा का परिचायक है।
— Dr Awadhesh Kumar Awadh