प्राण ऊर्जा का सदुपयोग स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है
मानव जीवन का संचालन आज भी विज्ञान के लिये आष्यर्च बना हुआ है। हमारे षरीर में जो क्रियायें अथवा प्रतिक्रियायें होती है उसका संचालन एवं नियन्त्रण कौन और कैसे करता है? क्या हमारे जन्म समय पर ग्रह एवं नक्षत्रों की ब्रह्माण्ड में स्थिति के आधार पर ज्योतिशियों द्वारा बनायी जाने वाली जन्म कुण्डलियों की यर्थाथता एवं भविश्यवाणियों के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार है अथवा कोरी कल्पनायें? क्या विषेश प्रकार के पिरामिड प्राकृतिक ऊर्जा को आकर्शित एवं नियन्त्रित करने में सहयोग करते हैं जिससे हजारों वर्शों तक ‘‘मीश्र ;म्हलचजद्ध’’ में मृत व्यक्तियों के षव सुरक्षित रखे जा सके हैं? अधिकांष मन्दिरों में मूर्ति एवं उसके बाहर वाला कक्ष जहाँ बैठ प्रभु का ध्यान किया जाता है, उसकी छत प्रायः पिरामिड के आकार की ही क्यों बनायी जाती है। पिरामिड का आकार विषेश ऊर्जा का स्रोत क्यों माना गया है एवं उसमें कौनसी ऊर्जा कहां से नियन्त्रित होती है।
क्या हमारे आस पास का वास्तु हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है? अलग-अलग प्रकार के रंगों का स्पर्ष, उपयोग, चिन्तन एवं ध्यान हमारे स्वास्थ्य को क्यों और कैसे प्रभावित करते हैं? विभिन्न प्रकार के मणि रत्नों, स्फटिकों एवं बहूमूल्य पत्थरों से निकलने वाली किरणें हमारे स्वास्थ्य का क्यों और कैसे नियन्त्रण करती है?
क्या रेकी, प्राणिक हीलिंग, डाउजिंग, दूरस्थ चिकित्सा पद्धतियाँ प्रभावषाली है एवं उनके सिद्धान्त स्वास्थ्य विज्ञान पर आधारित हैं? विषेश प्रकार प्रकार के मन्त्रोच्चारण से सर्प एवं बिच्छू का विश दूर होने के पीछे क्या वैज्ञानिक आधार है? ध्वनि चिकित्सा रोग मुक्त करने में कैसे उपयोगी सिद्ध हुयी है? विभिन्न इलैक्ट्रोनिक उपकरणों से प्रवाहित होने वाली आणविक तरंगें हमारे स्वास्थ्य के लिए कितनी और क्यों हानिकारक है? चुम्बकीय ऊर्जा हमारे स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करती है? रोग निवारण में महत्वपूर्ण भूमिका क्यों निभा रही है? ब्रह्माण्ड में जो भी घटित होता है उसका हमारे ऊपर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष क्यों प्रभाव पड़ता है? पूर्णिमा की रात में जब समुद्र में ज्वार आता है तब हमारे मन में तो उन्माद नहीं आता? साधकों को ऐसे समय व्रत नियम रख एवं संयम के प्रति विषेश सजगता रखने की विषेश प्रेरणा क्यों दी जाती है? हमारे विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण किये गये विशय जैसे देखना, सुनना, बोलना, गन्ध लेना, स्वाद, स्पर्ष आदि के प्रति रुचि अथवा अरुचि हमारे अंगों की स्वस्थता की अभिव्यक्ति तो नहीं करते हैं? क्या हमारा मनोबल, सहनषक्ति, उत्साह, चिन्तन, मनन हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है? क्या हमारी भावनाओं, आकांक्षाओं, संकल्पों, विकल्पों, आवेगों, संवेदनाओं को नियन्त्रित करने का चिकित्सकों ने उपाय खोज लिया है? अगर नहीं तो क्या उनका रोगों से प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई सम्बन्ध तो नहीं है?
क्या चौबीसों घन्टें हमारे सभी अंग समान रूप से सक्रिय होते हैं? भोजन एवं पानी को ही जीवन की एकमात्र ऊर्जा मानने वालों तथा उनके लिये स्वाद की लोलुपता के नाम पर निःसंकोच अभक्ष्य मांसाहार का सेवन कर ताकत पाने की कामना रखने वालों को भी स्वीकार करना होगा कि हमारे साधक एवं ऋशि मुनि बिना भोजन एवं पानी लगातार दीर्घकाल तक तपस्या करके भी स्वस्थ रहते थे। आज भी हमारे देष में ऐसी अनेकों विभूतियां हैं जो अनेक वर्शो से बिना भोजन स्वस्थ जीवन जी रहे हैं जो हमारी पूर्वाग्रसित भावनाओं के लिये चिन्तन का विशय है। प्राणायाम का साधक समाधि के समय लम्बे समय तक ष्वसन क्रिया को रोकने में सक्षम हुये हैं। उपरोक्त सारे तथ्य हमें सोचने को बाध्य करते हैं कि हमारे जीवन का मूल आधार हवा पानी एवं भोजन के अतिरिक्त ऐसी ऊर्जा है जिससे हम हलन-चलन कर सकते हैं, ष्वास ले सकते हैं, खाया हुआ पचा सकते हैं, अनुपयोगी विकारों को षरीर से बाहर निश्कासित कर सकते हैं तथा प्रजनन करने में सक्षम होते हैं। मृत्यु के पष्चात् कृत्रिम साधनों द्वारा कितनी भी प्राण वायु षरीर में क्यों न पहुँचायी जावे, ये क्रियायें नहीं हो पाती। मृत्यु के साथ ही हमारे सारे अंग ब्राह्य रूप से दिखते हुये भी पूर्ण रूपेण षान्त अथवा निश्क्रिय हो जाते हैं। बाजार में उपलब्ध ताकत की दवाईयां, जड़ी बूटियां, केपसूल, इन्जेक्षन आदि जिन्हें हम हमारी ऊर्जा का स्रोत समझने की भूल कर रहे हैं, पुनः जीवन संचालन करने में क्यों प्रभावहीन हो जाते है?
इसका अभिप्रायः यही है कि भोजन, पानी, हवा एवं उपचार के अन्य साधन जीवन संचालन में सहयोगी मात्र ही होते हैं। अदृश्यरूप से प्रतिक्षण प्रकृति से प्रवाहित होने वाली प्राण ऊर्जा ही जीवन का मूलाधार होती है। इसी कारण यदि त्वचा के सभी छिद्रों को किसी रसायन द्वारा बन्द कर दिया जावे तो जीवन तत्काल समाप्त हो जाता है। जैन आगमों में वर्णित ‘रोम आहार’ का सिद्धान्त षरीर द्वारा प्रकृति से सीधी प्राण ऊर्जा ग्रहण करने के तथ्य को पुश्ट करता है। हमारे षरीर के चारों तरफ जो आभामण्डल है, वह इस प्राण ऊर्जा को सन्तुलित रखने में सहयोग करता है तथा हमारे व्यक्तित्व, चरित्र, समभाव तथा आध्यात्मिक स्तर की अभिव्यक्ति करता है। उपचार के सारे माध्यम जो षरीर में प्राण ऊर्जा को सन्तुलित कर संचालन करने के सिद्धान्तों पर, जितने-जितने आधारित होते हैं, रोग निवारण में उतने ही प्रभावषाली सिद्ध होते हैं। जो चिकित्सा पद्धतियां इस तथ्य की उपेक्षा करती है वे भले ही तत्कालिक लाभ पहुँचा सके, परन्तु अपने दुश्प्रभावों के कारण अन्य रोगों की उत्पति का कारण बन सकती है।
जिन मार्गो से षरीर में प्राण ऊर्जा प्रवाहित होती है उन्हें प्राण ऊर्जा मार्ग अथवा मेरेडियन ;डमतपकपंदद्ध कहते हैं। षरीर में 12 मुख्य मेरेडियनस होती है, जिनमें से 10 मेरेडियन प्रमुख अंगों में ऊर्जा प्रवाहित करती है, अतः उन्ही के नाम से पहिचानी जाती है। बाकी दो प्रमुख मेरेडियन अपने कार्य अथवा गतिविधियों के आधार पर पहिचानी जाती है। षरीर में प्रमुख 12 मेरेडियन निम्न है-
1. फेंफड़े की प्राण ऊर्जा का मार्ग ;स्नदहे डमतपकपंदद्ध
2. बड़ी आंत की प्राण ऊर्जा का मार्ग ;स्वदह प्दजमेजपदम डमतपकपंदद्ध
3. आमाषय की प्राण ऊर्जा का मार्ग ;ैजवउंबी डमतपकपंदद्ध
4. तिल्ली की प्राण ऊर्जा का मार्ग ;ैचसममद डमतपकपंदद्ध
5. हृदय की प्राण ऊर्जा का मार्ग ;भ्मंतज डमतपकपंदद्ध
6. छोटी आंत की प्राण ऊर्जा का मार्ग ;ैउंसस प्दजमेजपदम डमतपकपंदद्ध
7. गुर्दे की प्राण ऊर्जा का मार्ग ;ज्ञपकदमल डमतपकपंदद्ध
8. मूत्राषय की प्राण ऊर्जा का मार्ग;न्तपदंतल डमतपकपंदद्ध
9. यकृत की प्राण ऊर्जा का मार्ग ;स्मअमत डमतपकपंदद्ध
10. पीत्ताषय की प्राण ऊर्जा का मार्ग ;ळंसस ठसंककमत डमतपकपंदद्ध
11. हृदय को संकुचन करने वाली ऊर्जा का मार्ग ;च्मतपबंतकपंद डमतपकपंदद्ध
12. तीन अगिन्यों को नियन्त्रित करने वाली प्राण ऊर्जा का मार्ग ;ज्तपचसम भ्मंजमत डमतपकपंदद्ध
उपरोक्त सभी प्रमुख मेरेडियन षरीर में दाहिने एवं बायें भाग में समान रूप से होती है। इसी कारण षरीर के किसी भी भाग में दर्द होने पर उसके दूसरी तरफ भी धीरे-धीरे उसका प्रभाव पड़ने लगता है। जैसे यदि बायें घुटने में दर्द होता है तथा उसकी उपेक्षा की जावेगी तो धीरे-धीरे दाहिने घुटने में भी दर्द होने लगता है।
वैसे तो प्रतिक्षण षरीर के सभी अंगों में प्राण ऊर्जा का प्रवाह होता ही है, फिर भी चौबिसों घण्टे सभी प्रमुख अंगों में प्राण ऊर्जा का प्रवाह एक सा नहीं होता। प्रतिदिन दो-दो घन्टे बारी-बारी से प्रमुख मेरेडियन में प्राण ऊर्जा का प्रवाह विषेश होता है तथा उसके 12 घण्टे पष्चात अपेक्षाकृत सबसे कम होता है। अतः यदि रोग का कारण किसी अंग में प्राण ऊर्जा की कमी से होता है तो जब प्रकृति से उस अंग को अधिक ऊर्जा मिलती है तो रोगी को राहत का अनुभव होता है। ऐसे समय किया गया उपचार अधिक प्रभावषाली तथा षीघ्र परिणाम देता है। इसके विपरीत ऐसे रोगों को जब प्राण ऊर्जा प्रकृति से सबसे कम मिलती है तो अपेक्षाकृत अधिक बैचेनी का अनुभव होता है। इसी प्रकार यदि रोग का कारण सम्बन्धित अंगों में प्राण ऊर्जा की अधिकता से हो तो जब प्रकृति से प्राण ऊर्जा स्वाभाविक रूप से अधिक प्रवाहित होती है तो रोगी को अधिक परेषानी का अनुभव होता है और जब उसमें सहज रूप से अपेक्षाकृत प्राप्त ऊर्जा कम प्रवाहित हो तब रोगी को स्वतः राहत का अनुभव होने लगता है। प्राण ऊर्जा की प्रत्येक मेरेडियन में सबसे अधिक ऊर्जा प्रवाह एवं सबसे कम ऊर्जा प्रवाह का समय वैज्ञानिकों की मान्यता के अनुसार निम्न होता है।
मेरेडियन के नाम प्राण ऊर्जा के अधिक प्राण ऊर्जा के अपेक्षाकृत कम
प्रवाह का समय प्रवाह का समय
1. फेंफड़े रात्रि 3 से 5 बजे तक दोपहर 3 से 5 बजे तक
2. बड़ी आंत प्रातः 5 से 7 बजे तक सांयकाल 5 से 7 बजे तक
3. आमाषय प्रातः 7 से 9 बजे तक सांयकाल 7 से 9 बजे तक
4. तिल्ली प्रातः 9 से 11 बजे तक रात्रि 9 से 11 बजे तक
5. हृदय दोपहर 11 से 1 बजे तक रात्रि 11 से 1 बजे तक
6. छोटी आंत दोपहर 1 से 3 बजे तक रात्रि 1 से 3 बजे तक
7. मूत्राषय दोपहर 3 से 5 बजे तक प्रातः 3 से 5 बजे तक
8. गुर्दे सांयकाल 5 से 7 बजे तक प्रातः 5 से 7 बजे तक
9. पेरेकार्डियन रात्रि 7 से 9 बजे तक प्रातः 7 से 9 बजे तक
10. त्रिग्रनी रात्रि 9 से 11 बजे तक प्रातः 9 से 11 बजे तक
11. पीत्ताषय रात्रि 11 से 1 बजे तक दोपहर 11 से 1 बजे तक
12. यकृत रात्रि 1 से 3 बजे तक दोपहर 1 से 3 बजे तक
दूसरी बात कभी-कभी रोगी को निष्चित समय होते ही रोग का आभास होने लगता है। इसका कारण या तो वह अंग है जिनमें ऊर्जा का प्रवाह प्रकृति से उस समय अपेक्षाकृत अधिक अथवा कम प्रवाहित होता है। इस तथ्य से रोग का कारण जानने में सहायता मिलती है।
प्रतिदिन की भांति 12 प्रमुख अंगों/मेरेडियनस में लगभग एक मास तक ऊर्जा का अपेक्षाकृत अधिक प्रवाह होता है। इसी कारण मनुश्य की जन्म तिथि के समय जिस मेरेडियन में प्रकृति से प्राण ऊर्जा का प्रवाह अधिक होता है उससे सम्बन्धित अंग ही उस व्यक्ति का प्रमुख संचालक अंग होता है। जब तक वह अंग पूर्णरूपेण स्वस्थ रहता है अन्य रोग ज्यादा हानि नहीं पहुँचा सकते, परन्तु उस मेरेडियन में प्रवाहित ऊर्जा के असन्तुलन की तनिक उपेक्षा भी काफी हानिकारक हो सकती है। मनुश्य की मृत्यु का कारण उस मेरेडियन में ऊर्जा के प्रवाह का अभाव ही होता है।
इसी कारण किसी व्यक्ति की मृत्यु हृदयघात से होती है तो कोई गुर्दे, यकृत, फेंफड़े, तिल्ली, पेनक्रियाज इत्यादि के रोगों से। कोई-कोई व्यक्ति प्रथम हृदयघात में ही चले जाते हैं क्योंकि उनका संचालक अंग हृदय होता है, जबकि बहुत से व्यक्ति 3-4 हृदयघात आने के पष्चात भी बच जाते हैं क्योंकि उनका संचालक अंग हृदय नहीं होता।
प्रतिवर्श मेरेडियनस में अपेक्षाकृत अधिक ऊर्जा प्रवाह का समय डॉ. ब्लेट के अनुसार निम्न होता है।
मेरेडियन समय
1. यकृत मेरेडियन 8 जनवरी से 6 फरवरी
2. फेंफड़े की मेरेडियन 7 फरवरी से 8 मार्च
3. बड़ी आंत मेरेडियन 9 मार्च से 8 अप्रेल
4. आमाषय मेरेडियन 8 अप्रेल से 7 मई
5. तिल्ली मेरेडियन 8 मई से 7 जून
6. हृदय मेरेडियन 8 जून से 7 जूलाई
7. छोटी आंत मेरेडियन 8 जुलाई से 7 अगस्त
8. मूत्राषय मेरेडियन 8 अगस्त से 7 सितम्बर
9. गुर्दे की मेरेडियन 8 सितम्बर से 7 अक्टूम्बर
10. पेरीकार्डियन मेरेडियन 8 अक्टूम्बर से 7 नवम्बर
11. त्रिअग्नी मेरेडियन 8 नवम्बर से 7 दिसम्बर
12. पित्ताषय मेरेडियन 8 दिसम्बर से 7 जनवरी
उपरोक्त तालिका के अनुसार यदि किसी व्यक्ति की जन्म तिथी एक ही यिन-यांग समूह अंगों के बीच होती है जैसे 8 (जनवरी, मार्च, मई, जुलाई, सितम्बर, नवम्बर) के आसपास का समय, तब प्रमुख संचालक अंग पर विषेश प्रभाव अवष्य पड़ता है, परन्तु यदि जन्म तिथी दूसरे समूह वाले अंग में प्राण ऊर्जा प्रवाहित होने के समय के आसपास, जैसे 8 (फरवरी,अप्रेल, जून, अगस्त, अक्टूम्बर, दिसम्बर) तब प्रमुख अंग को जानने के लिये दोनों अंगों का असंतुलन हो सकता है, अर्थात् जन्म तिथी प्राकृतिक ऊर्जा के अंगों में परिवर्तन के समय जितनी-जितनी समीप होगी उतना-उतना ही उन अंगों की प्रमुख संचालक अंग हेतू भूमिका एवं प्रभाव रहेगा। इस तथ्य से रोग निदान एवं उपचार में काफी सहायता मिलती है। जब रोगी की हालत बहुत चिन्ताजनक हो, वह अपने रोगों के कारणों की सही अभिव्यक्ति करने में असमर्थ हो तथा रोग का निदान नहीं हो पा रहा हो, तब जन्म तिथी के आधार पर सम्भावित प्रमुख संचालक अंगों के उपचार को प्राथमिकता देनी चाहिये। इन अंगों को स्वस्थ रखने में संचालक अंग की अहम् भूमिका होती है। जैसे सेना में सेनापति एवं पाठषाला में प्रध्यानाध्यपक की। चिकित्सा जगत से जुड़े सभी चिकित्सकों एवं स्वास्थ्य मंत्रालय से हमारा विनम्र अनुरोध है कि जनसाधारण के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिये इन तथ्यों को स्वीकारें तथा इसके विभिन्न पहलुओं पर पूर्वाग्रह छोड़ षोध करें ताकि हम स्वस्थ रहने की कला सीख सकें।
— डॉ. चंचलमल चोरडिया