कविता

मै बिष का प्याला पी जाऊ

जो लब पे तेरे मुस्कान खिले
मैं विष का प्याला पी जाऊं।
एक बार जो तू हसकर कह दे ,
मैं फिर से उठकर जी जाऊं।
इस मिट्टी मानव तन ने जाने
कितने ही युग युग भटकाया है।
कुछ शेष रहा ना जिसे पाकर,
उस प्रेम को मैंने पाया है।
है पुरवाई में बंसी की धुन,
मधुवन में पायल की रुनझुन
इस सारी श्रष्टि को प्रभु ने,
बड़ी तन्मयता से सजाया है।
कुछ शेष रहा ना जिसे पाकर,
हां उस प्रेम को मैंने पाया है।
नीला अम्बर उपर नीचे धरती
ले रूप नदी का वसुधा बहती,
है धूप कड़क सूरज की कहीं
पग-पग तरुवर की छाया है,
कुछ शेष रहा ना जिसे पाकर
उस प्रेम को मैंने पाया है,
उस प्रेम को मैंने पाया है,
— निभा उत्प्रेक्षा

निभा उत्प्रेक्षा

वरिष्ठ कवयित्री व स्वतन्त्र लेखिका,सर्योदय नगर, बेगुसराय-बिहार