गीतिका
आजीवन जलदान किया है।
कहलाती फिर भी नदिया है।।
फूले – फले सदा परहित में,
महकाती जग को बगिया है।
सत्कर्मों से संत बने नर,
फटे वसन को सदा सिया है।
ऊपर रहे हाथ दाता का,
नीचे जिसने हाथ लिया है।
अपना उदर श्वान भी भरते,
औरों के हित सुजन जिया है।
पाता है आनंद अपरिमित ,
प्रेम – सुधा जो नित्य पिया है।
‘शुभम्’ सुमन वाणी में झरते,
आजीवन रहता सुखिया है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’