मुक्तक/दोहा

दोहे “नहीं शीत का अन्त”

कुहरा नभ पर देख कर, सहमा हुआ पलाश।
कैसे आयेगा भला, उपवन में मधुमास।

धूप धरा पर है नहीं, ठिठुर रहा है गात।
आशाओं पर हो रहा, घना तुषारापात।।

टेसू चिन्तित हो रहा, सरसों हुई उदास।
सरदी में कैसे उगे, जीवन में उल्लास।।

सूर्य उत्तरायण हुआ, नहीं शीत का अन्त।
थरथर-थरथर काँपता, सिर पर खड़ा बसन्त।।

जाते-जाते शीत तो, दिखा रहा है रूप।
घर-आँगन में है नहीं, अभी गुनगुनी धूप।।

खग-मृग, कोयल-काग को, सुख देती है धूप।
उपवन और बसन्त का, यह सवाँरती रूप।।

नहीं निखरता धूप बिन, जड़-चेतन का स्वरूप।
जड़, जंगल और जीव को, जीवन देती धूप।।

सुर, नर, मुनि के ज्ञान की, जब ढल जाती धूप।
छत्र-सिंहासन के बिना, रंक कहाते भूप।।

बिना धूप के खेत में, फसल नहीं उग पाय।
शीत, ग्रीष्म, वर्षाऋतु, भुवनभास्कर लाय।।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

*डॉ. रूपचन्द शास्त्री 'मयंक'

एम.ए.(हिन्दी-संस्कृत)। सदस्य - अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखंड सरकार, सन् 2005 से 2008 तक। सन् 1996 से 2004 तक लगातार उच्चारण पत्रिका का सम्पादन। 2011 में "सुख का सूरज", "धरा के रंग", "हँसता गाता बचपन" और "नन्हें सुमन" के नाम से मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। "सम्मान" पाने का तो सौभाग्य ही नहीं मिला। क्योंकि अब तक दूसरों को ही सम्मानित करने में संलग्न हूँ। सम्प्रति इस वर्ष मुझे हिन्दी साहित्य निकेतन परिकल्पना के द्वारा 2010 के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार के रूप में हिन्दी दिवस नई दिल्ली में उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा सम्मानित किया गया है▬ सम्प्रति-अप्रैल 2016 में मेरी दोहावली की दो पुस्तकें "खिली रूप की धूप" और "कदम-कदम पर घास" भी प्रकाशित हुई हैं। -- मेरे बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर भी उपलब्ध है- http://taau.taau.in/2009/06/blog-post_04.html प्रति वर्ष 4 फरवरी को मेरा जन्म-दिन आता है