दोहे “नहीं शीत का अन्त”
कुहरा नभ पर देख कर, सहमा हुआ पलाश।
कैसे आयेगा भला, उपवन में मधुमास।
—
धूप धरा पर है नहीं, ठिठुर रहा है गात।
आशाओं पर हो रहा, घना तुषारापात।।
—
टेसू चिन्तित हो रहा, सरसों हुई उदास।
सरदी में कैसे उगे, जीवन में उल्लास।।
—
सूर्य उत्तरायण हुआ, नहीं शीत का अन्त।
थरथर-थरथर काँपता, सिर पर खड़ा बसन्त।।
—
जाते-जाते शीत तो, दिखा रहा है रूप।
घर-आँगन में है नहीं, अभी गुनगुनी धूप।।
—
खग-मृग, कोयल-काग को, सुख देती है धूप।
उपवन और बसन्त का, यह सवाँरती रूप।।
—
नहीं निखरता धूप बिन, जड़-चेतन का स्वरूप।
जड़, जंगल और जीव को, जीवन देती धूप।।
सुर, नर, मुनि के ज्ञान की, जब ढल जाती धूप।
छत्र-सिंहासन के बिना, रंक कहाते भूप।।
बिना धूप के खेत में, फसल नहीं उग पाय।
शीत, ग्रीष्म, वर्षाऋतु, भुवनभास्कर लाय।।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)