छब्बीस दोहे “मुखरित है शृंगार”
प्रीत-रीत का जब कभी, होता है अहसास।
मन की बंजर धरा पर, तब उग आती घास।१।
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कुंकुम बिन्दी-मेंहदी, काले-काले बाल।
कनक-छरी सी कामिनी, लगती बहुत कमाल।२।
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मौसम आवारा हुआ, मुखरित है शृंगार।
नेह-नीर का पान कर, सुमन बाँटते प्यार।३।
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लगे चहकने बाग में, पत्ते कलियाँ-फूल।
जंगल में हँसने लगे, बेरी और बबूल।४।
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कंकड़-काँटों से भरी, प्यार प्रीत की राह।
पूरी हों इस जनम में, कैसे मन की चाह।५।
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आशिकबाजी की नहीं, होती कोई जात।
बेमतलब की हो रही, माशूकों से बात।६।
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मिल जाती हैं आँख जब, तब आ जाता चैन।
गैरों को अपना करें, चंचल चितवन नैन।७।
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मोती जैसी सुमन से, टपक रही है ओस।
सौरभ और पराग-कण, कलियाँ रहीं परोस।८।
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भिन्न-भिन्न मधुभ्रामरीं, मचा रहीं हैं शोर।
सूर्य-रश्मियाँ दे रहीं, सारे जग को भोर।९।
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प्रणय निवेदन से हुए, गाल सिँदूरी-लाल।
हँसी-ठिठोली कर रहे, राधा सँग गोपाल।१०।
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नख-शिख को मत देखिए, होगा हिया अशान्त।
भोगवाद को त्याग कर, रखिए मन को शान्त।११।
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लटक रहे हैं कब्र में, जिनके आधे पाँव।
वो ही ज्यादा फेंकते, इश्क-मुश्क के दाँव।१२।
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मन में तो है कलुषता, होठों पर हरि नाम।
काम-काम को छल रहा, अब तो आठों याम।१३।
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कामुकता से हो रहा, लज्जित आज समाज।
महिलाओं की देश में, नहीं सुरक्षित लाज।१४।
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यौवन तो उन्मुक्त है, कामुकता का केन्द्र।
सुन्दरता की मार से, पागल हुए सुरेन्द्र।१५।
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नख से शिख तक रूप की, महिमा बड़ी अनन्त।
देख सामने रूपसी, हारे सन्त महन्त।१६।
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कामदेव के ताप का, जब उठता तूफान।
चक्रवात के जाल में, फँस जाता इंसान।१७।
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उठती है जब रूप के, मादकता की गन्ध।
अनजाने के साथ में, हो जाते अनुबन्ध।१८।
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दुनिया में सबसे पेरबल, काम वेग का ज्वार।
नहीं बनी कोई दवा, जिससे हो उपचार।१९।
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झूमर झूलें कान में, पायल करतीं शोर।
छम-छम करती कामिनी, आँगन में चहुँ ओर।२०।
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मंगलसूत्र सुहाग का, विहँसे बाजूबन्द।
सजनी के शृंगार को, साजन करें पसन्द।२१।
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नथुली झूमे नाक में, चूड़ी-कंगन हाथ।
सुन्दर लगती भामिनी, आभूषण के साथ।२२।
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गोरा रँग-काले बसन, चप्पल हैं चित-चोर।
गहने सोने-रजत के, मन को करें विभोर।२३।
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टीका में हीरा जड़ा, माथे पर सिन्दूर।
मानों उतरी धरा पर, स्वर्ग-लोक से हूर।२४।
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सेमल-टेसू लाल हैं, चहक रहा मधुमास।
भँवरे-मधु की माधवी, करते भोग-विलास।२५।
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गेहूँ करते नृत्य हैं, आम रहे बौराय।
जामुन नीम-पलाश भी, आपस में बतियाय।२६।
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)