गर्भनाल
बैंड बाजे के शोर में कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। हर कोई एक दूसरे से बात करते हुए ऐसे चीख रहा था जैसे पुराने लैंड लाइन पर एस टी डी कॉल पर बात हो रही हो।
मंडप सज कर तैयार हो चुका था। नंदोई जी हलवाइयों को मेनू समझा रहे थे। ननद रानी मंडप में खिलाए जाने वाले ‘कोहरवत के भात’ की तैयारी और मिट्टी का चूल्हा बनाने में व्यस्त थीं।
पतिदेव महाराज शामियाने, बैंडबाजे और फूलों से सजावट कर रहें लोगों के पैसे, रूपये की बात संभाल रहे थे। विभोर यानि मेरे बेटे को पांचवी हल्दी अभी लगानी बाकी थी।
बेटियां अपने-अपने कपड़ों, गहनों और श्रृंगार की चीजों को एक जगह रख बारात की तैयारी में जुटी थीं और उनके बच्चे बाकी बच्चों के साथ मिलकर छत से लेकर लॉन तक खरगोशों की तरह इधर-उधर फुदक रहे थे।कुछ गाने की धुन पर हाथ-पांव को उलटे-सीधे ढंग से घुमाते हुए नाचने का प्रयास कर रहे थे लेकिन मैं…मैं…सजल नेत्रों से सबकी तैयारियों को देखते हुए गुरहत्ती (एक रस्म जिसमें लड़के का दूर का बड़ा भाई लड़की को देने वाली वस्तुओं को उससे स्पर्श कराते हुए उसे सौंपता है) के बक्से को सजा तो रही थी लेकिन अपने अंदर की बेचैनी से जूझते हुए बार-बार भर आती आंखों को आंचल की कोर से पोंछती भी जा रही थी।
मन के घोड़े एकांत पाकर सरपट दौड़ने लगे थे। शाम को मेरे विभु की बारात निकलने वाली थी…मेरा विभु…मेरा लाडला…मेरे कलेजे का टुकड़ा…मेरा मान, अभिमान, मेरा गुरुर सब कुछ मेरा… विभु । वह विभु जो बाहर जाते वक्त पूछता – “मम्मी! क्या पहनूं? इस जींस के साथ टी शर्ट.. या शर्ट..? मम्मी!देखो न हेयर कट ठीक है न?”
कहीं बाहर खाने के नाम पर वह चहक उठता – “मम्मी!क्या खाओगी? स्टाटर में क्या ऑडर करें?”
कभी हम मां बेटे ऑन लाइन शॉपिंग इंजॉय कर रहे होते तो वह ज़िद करता-” मां!ये सूट लो न! अच्छा लगेगा तुम पे।”
कभी अपने पसंद का नाश्ता खाकर(यूं तो हर दिन उसकी पसंद को भी तरजीह दी जाती)मुझे दुलार से चूमते हुए मेरे गाल काट लेता और मैं जबरदस्ती का गुस्सा ओढ़े उसे मारने दौड़ पड़ती । मेरे लिखने-पढ़ने के दौरान वह अचानक से ‘भो’ कर मुझे डरा देता तो मैं भला पीछे कहां रहती? उसके नहाकर आने पर ‘किसी का फोन आया था हमने कह दिया कि दो घंटे बाद फोन करना’ जैसी मसखरी कर उसे चिढ़ा देती।
संदेह के सर्प ने धीरे से अपना फन उठाया…क्या…क्या…विवाह के बाद भी वो मुझे यूं ही…कहीं वो मुझे अनदेखा…कहीं वो मुझे दूर तो न …हज़ार आशंकाएं…समंदर की लहरों सी मेरे मन में उठती और अंधेरे किनारों से टकराकर शोर मचाती हुई मन की खोह में ही विलीन हो जाती।
विचारों की आवा-जाही से एक तेज झुरझुरी हुई और मेरा शरीर हौले से कांप उठा था।
“अरे भाभी! कब तक बक्सा सहेजती रहोगी हल्दी का समय निकला जा रहा है पूरा काम पड़ा है अब चलो भी।” ननद मुझे बीते दिनों से ऐसे खींच लाई जैसे बच्चे पेड़ों की डाल से उलझी अपनी पतंग को आस्ते से खींच लाते हैं।
” क्या भाभी! आप तो ऐसे भावुक हुई जा रही हैं जैसे बिटिया ब्याह रही हैं।” ननद ने मेरी गुलाबी हुई नाक और डबडबाई आंखों को देखकर अपनत्व से मेरी हथेलियों को हल्के से दबाते हुए कहा।
हल्दी की रस्म पूरी होने जा रही थी ।हंसी ठिठोली और हल्दी, चुमावन के गीतों से आंगन गूंज रहा था। मैं विभु से नज़रें चुरा रही थी लेकिन उसकी नज़रें मेरे चेहरे का ही मुआयना कर रही थीं । सुर्ख़ हुई नाक, थोड़ी पनीली सी आंखें और होठों पर एक उदास मुस्कुराहट…ये सब मेरे विभु से मेरी चुगली कर रहीं थीं।
रस्म पूरी होने के बाद मैं उसे ‘कोहबर’ में बैठा कर निकलने लगी तो मेरी पीली साड़ी का आंचल थामें मेरा विभु खड़ा था। उसके होंठ सिले हुए थे लेकिन उसकी आंखें…उसकी आंखें बोल रही थीं – मां! मैं नए रिश्ते से ज़रूर जुड़ने जा रहा हूं…पर तुम्हें खो कर या दुखी करके नहीं…तुम्हारे साथ चलते हुए, तुम्हारा हाथ थामे हुए और जो आने वाली है उसका साथ भी निभाते हुए…।
मैंने हहाकर अपने लाल को सीने से लगा लिया था। देखा तो उसकी आंखें भी सुर्ख हुई जा रही थीं। गर्भनाल से जुड़े मेरे विभु ने चुपके से मेरे मन के डर को पढ़ लिया था।
— डॉ. रत्ना मानिक