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जयंतिया समुदाय का जन – जीवन

जयंतिया हिल्स का भौगोलिक स्वरूप पर्वतराज हिमालय से जुड़ा हुआ है। राजनीतिक रूप से यह मेघालय राज्य का एक जिला है जो जुलाई 2012 से ईस्ट जयंतिया हिल्स और वेस्ट जयंतिया हिल्स नामक दो जिलों से नामित है। प्राकृतिक रूप से यह उपोष्णकटिबंधीय वनों से आच्छादित है। मेगालिथिक (मोनोलिथ) पत्थरों का संग्रह अतीतकालीन समन्वय का वर्तमान साक्ष्य एवं माँ दुर्गा का नार्तियांग में अवस्थित मंदिर तथा जयंतियापुर की कहानी में जयंतिया हिल्स का समग्र परिचय विद्यमान है।
सांस्कृतिक प्रयोगशाला की संज्ञा से सुशोभित पूर्वोत्तर भारत सात राज्यों का समूह है जिसमें से एक राज्य अ-सम असम की गोद में बांग्लादेश का पड़ोसी बनकर मेघालय अवस्थित है। मेघों का  आलय, मेघालय अति प्राचीन क्षेत्र है जो 1972 से पहले असम का स्वायत्त क्षेत्र और उससे भी पहले अभिन्न भाग हुआ करता था। वर्तमान में इसकी राजधानी शिलॉंग (प्राचीन नाम शिवलिंग) है। मेघालय में प्रमुख तीन पहाड़िया हैं यथा, खासी हिल्स, गारो हिल्स और जयंतिया हिल्स (पूर्वी एवं पश्चिमी)। पूर्व जयंतिया हिल्स का जिला मुख्यालय ख्लेहरिहट और पश्चिम जयंतिया हिल्स का जिला मुख्यालय जोवाई है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, पूर्व जयंतिया हिल्स की जनसंख्या 1,22,939 तथा क्षेत्रफल 2040 वर्ग किलोमीटर है। पश्चिम जयंतिया हिल्स अपेक्षाकृत बड़ा है। इसकी कुल जनसंख्या 2,72,185 तथा क्षेत्रफल 3819 वर्ग किलोमीटर है। एक प्रबल मान्यता के अनुसार यहाँ के लोग इंडो-मंगोलॉयड जाति के हैं। इनकी भाषा मोन-खमेर से संबंधित एक पृथक ऑस्ट्रिक भाषा है। इनके सामाजिक उत्पत्ति के बारे में एक स्वदेशी सिद्धांत भी है जिसके अनुसार ये एक सामान्य जाति के थे जो उत्तरी भारत, बर्मा, भारत-चीन और कालान्तर में दक्षिण चीन के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिए थे।
पश्चिम जयंतिया हिल्स के नारतियांग बाजार के सम्बंध में एक पुरानी कथा जुड़ी हुई है। इसके अनुसार यू मार फलिंगकी रालियांग बाजार से नारतियांग बाजार तक विशाल पत्थरों की पट्टी को ढोकर लाया था, जिसे आज भी देखा जा सकता है। नारतियांग बाजार में पाए जाने वाले पत्थरों के संग्रह में मेनहिर (सीधे पत्थर), मू शिनरंग और डोलमेंस (क्षैतिज सपाट पत्थर) पाए जाते हैं जिसे यहाँ मूकिन्थाई के नाम से पुकारा जाता है। यहाँ नारतियांग के विभिन्न कुलों द्वारा कई पत्थर के स्मारक या लॉट लगाए गए हैं जो 9वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी के माने जाते हैं। जयंतिया राजा के विश्वासपात्र लेफ्टिनेंट यू मार फलिंगकी ने युद्ध में जीत की स्मृति चिह्न के रूप में ये विशाल स्तम्भ बनवाए। राजा के आदेश से यू लुह लामार और यू मार फलिंगकी ने जनता के आवागमन के लिए जयंतियापुर (वर्तमान बांग्लादेश में) और नारतियांग के बीच पत्थर के पुल बनवाए। समान स्तम्भ के ऊपर ग्रेनाइट पत्थर के स्लैब से यह पुल निर्मित है। इसके साथ ही मुवी झरने हैं। इसी राज्य का एक महल बोरघाट में भी स्थित है।
जयंतिया हिल्स पर्यटन का भी एक प्रमुख आकर्षक केन्द्र है। इसका कारण यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता ही नहीं अपितु यहाँ की धार्मिक व ऐतिहासिक धरोहर भी है। पर्यटकों के साथ दर्शनार्थी भी यहाँ बड़ी संख्या में आते हैं। नारतियंग में स्थित दुर्गा मंदिर यहाँ पर हिंदुत्व की उपस्थिति का अकाट्य साक्ष्य है। इसका निर्माण लगभग 600 वर्ष पूर्व यहाँ के राजा धन माणिक्य ने कराया था। देवी माँ ने राजा को मंदिर बनाने के लिए सपने में आदेश दिया था। यह मंदिर भगवती जयंतेश्वरी के नाम से संबोधित है। पौराणिक कथा के अनुसार, जब भगवान शिव जी, सती के शव को कंधे पर लेकर शोक, संताप और प्रतिशोध में इधर-उधर घूम रहे थे तो भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से माता सती के शव को छिन्न-भिन्न कर दिया। इन्हीं 51 टुकड़ों में से उनकी बाईं जाँघ नारतियांग में गिरी थी जहाँ कालांतर में यह मंदिर बनाया गया। यह स्थल एक शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। यद्यपि मंदिर के स्वरूप में कई बार बदलाव किया गया गया तथापि मूर्ति, वेदी और तलवार को अभी भी देखा जा सकता है। यहाँ भैरव जी से संबंधित एक शिव मंदिर भी है जिसे कामदेश्वर महादेव के नाम से जानते हैं। जनश्रुति के अनुसार, पहले यहाँ मनुष्य की बलि दी जाती थी किंतु अब यहाँ बकरे की बलि दी जाती है। बलि के समय एक बकरे को मनुष्य के प्रतीक के रूप में मुखौटे के साथ सजाकर बलि देते हैं। बलि स्थल से एक सुरंग भी है जिसका दूसरा द्वार नीचे बहती हुई मयतांग नदी में खुलता है। दुर्गा माँ के इस प्राचीन मंदिर को सर्वदा रक्त से चिह्नित किया जाता है। यह अजीब शक्ति का स्थल है जहाँ कहा जाता है कि मनुष्य की आत्मा अपने नश्वर कुंडल को छोड़ सकती है। यहाँ मोक्ष मिल सकता है। यहाँ अंधकार और प्रकाश सह अस्तित्व में हैं और दोनों की प्रबलता है। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर में आने से लोगों के तमाम दु:ख, दर्द और बीमारियाँ दूर हो जाती हैं। मनुष्य के व्यक्तित्व में भी बड़ा परिवर्तन होने की बातें प्रचलित हैं। यहाँ माता को बंदूक से भी सलामी दी जाती है। इस मंदिर के राजपुरोहित का संबंध महाराष्ट्र के क्षत्रिय देशमुख परिवार से अब भी बना हुआ है। वर्तमान पुजारी श्री ओनी देशमुख प्रथम पुरोहित की तीसवीं पीढ़ी में हैं।
जयंतिया साम्राज्य भी कुछ खासी-पनार जातियों में से एक है जिसका विस्तार मैदानों तक है। इसमें पहाड़ी के साथ-साथ मैदानी और गैर आदिवासी लोग भी शामिल थे। इस साम्राज्य की सीमा उत्तर में गोभा-सोनापुर से लेकर दक्षिण में सूरमा नदी तक व्याप्त है। पूर्व में कुपली नदी और पश्चिम में ब्रह्मपुत्र तक है। इसका इतिहास अहोम इतिहास में भी बहुत मिलता है। इसके खुद के सिक्के भी मिलते हैं जो इसकी आर्थिक और राजकोषीय नीति की सुदृढ़ता के द्योतक हैं। इस सम्बंध में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इसका शासन न केवल इसकी जाति और संस्कृति पर था बल्कि इसने विविधता को समेटकर एकता स्थापित किया था।
एक प्रचलित मत के अनुसार, पहाड़ी राजा जयंत रे के पास उसकी सफलता और खुशी के लिए कोई मुद्दा नहीं था। वह निःसंतान था। उसने राज्य की अधिष्ठात्री देवी से संतान प्राप्ति हेतु प्रार्थना की। देवी नींद में उसके पास आई और वादा की कि वह उसे एक बेटी देगी। कुछ महीनों के उपरांत राजा को एक बेटी पैदा हुई जिसका नाम जयंती रखा गया। जयंती का विवाह एक शाही पुजारी के बेटे लंभदूर से हुआ। बूढ़ा होने के बाद राजा अपना राज्य अपनी बेटी जयंती को सौंप दिया। राज सिंहासन पाते ही रानी, जयंती नाम बदलकर रानी सिंह हो गई। एक बार रानी सिंह ने अपने पति लंभदूर से नाराज होकर उसे राज्य निकाला का आदेश दे दिया। निष्कासित लंभदूर को गारो राजा के यहाँ आश्रय मिला और उस राजा की मृत्यु के बाद लंभदूर वहाँ का राजा बन गया। इधर रानी सिंह को अपने किए पर बहुत पछतावा हुआ और इसने देवी से इसका निवारण पूछा। देवी ने सपने में आकर बताया कि उससे एक बच्चे का जन्म होगा जिसे पानी में फेंकना पड़ेगा। फिर उस बच्चे को एक मछली खा लेगी। उसके बाद वही मछली स्त्री बनकर लंभदूर की पत्नी बनेगी जिसका नाम मुचोरदुरी होगा। कालांतर में ऐसा ही हुआ। लंभदूर और मुचोरदुरी से एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम बुर गाहैन/बोर कुहैन पड़ा। यही जयंतिया साम्राज्य का पहला शासक बना।
एक अन्य मत के अनुसार, पनार और जतंतिया लोगों के बीच की कहानी रयंडी तरियांग की थी। वह सतंगा क्षेत्र में रहकर मछली पकड़ता था। एक दिन उसने एक मछली को एक टोकरी में रखकर आग पर रखा और रखकर भूल गया। एक दिन वह बाहर से घर आकर देखता है कि उसका घर साफ-सुथरा किया हुआ है। खाना भी तैयार है। फिर खोज करने पर उसे पता चला कि वह मछली एक लड़की बन गई है और उसी ने ये सब किया है। रयंडी तरियांग ने उससे विवाह कर लिया। उसकी संतान सतंगा साम्राज्य का पहला शासक बना। याद रहे कि मार्च 1835 में राजा राजेन्द्र सिंह यहाँ के अंतिम शासक थे।
इन दोनों प्रचलित कहानियों में काफी हद तक साम्य है। यह सत्य है कि मैदानी और पहाड़ी लोगों की इन दोनों संस्कृतियों ने एक-दूसरे को खूब प्रभावित किया। समन्वित संस्कृति होने के कारण ही जयंतिया राजाओं ने न केवल पड़ोसी राज्यों के शाही परिवारों से वैवाहिक संबंध बनाए बल्कि हिंदुत्व को भी यथा संभव अपनाया। सय्यद मुर्तजा अली के मतानुसार, एक कोच राजा की बेटी थी जिसने शाही परिवारों में पूजा के हिंदू रीति-रिवाज चलाए जो साम्राज्य के पतन तक अनवरत चलता रहा। कुछ धार्मिक समारोहों में आज भी पीतल के बर्तन का प्रयोग, मैदानी संस्कृति से अपनाया गया है। सिर पर पगड़ी तो लगभग हर जगह चलती है लेकिन धोती मैदानी संस्कृति से आई है। अतः जयंतिया परम्परागत रूप से अन्य समूहों का भी घर है। जयंतिया की कहानी एक ऐसे समाज की कहानी है जो अपनी आदिवासी जड़ों को बनाए रखते हुए भी सभी संस्कृतियों के लिए खुला है।
यह जिला मेघालय में कोयले का सबसे बड़ा भंडार है। चूना पत्थर भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इन्हीं कारणों से जयंतिया हिल्स को मेघालय में सीमेंट उद्योग का केन्द्र भी कह सकते हैं। अन्य जिलों की ही तरह यहाँ भी मातृसत्तात्मक व्यवस्था कायम है। माँ की सबसे छोटी पुत्री ही घर एवं समस्त सम्पत्ति की स्वामिनी होती है। अविवाहित भाई-बहनों एवं माता-पिता की देखभाल भी वही करती है। सबसे छोटी पुत्री “नोकना” कही जाती है। यदि किसी महिला को पुत्री नहीं हुई तो वह अपनी बहन की पुत्री को “नोकना” की संज्ञा और अधिकार दे सकती है। जयंतिया को “पनार” भी कहते हैं। जयंतिया समाज में गोत्र को “कुर” कहते हैं। ये मातृपक्ष के द्वारा ही पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं। एक गोत्र में कई उपगोत्र भी होते हैं जिन्हें “कपोह” कहा जाताहै। यहाँ सब मिलाकर 38 गोत्र हैं। यहाँ विवाह हमेशा विषमगोत्रीय ही होता है। लड़की को अपना मनचाहा वर चुनने का अधिकार है जिसे दोनों घर वाले सहमति प्रदान कर देते हैं। विवाह लड़की के घर में सम्पन्न होता है जिसमें केवल पुरुष बाराती शामिल होते हैं। विवाह के समय पुजारी (लिंगदोह) “सियम वाबू” (सम्भवतः शिवजी का अपभ्रंश) की पूजा करता है और उनसे उज्जवल भविष्य हेतु प्रार्थना करता है। घर में पिता का कोई स्वामित्व नहीं चलता। वह आजीवन बाहरी माना जाता है। विवाह के उपरांत दामाद अपनी पत्नी के घर विदा होकर चला जाता है। वह अपने मायके और ससुराल के बीच बिना हक के जुड़ा रहता है। मरणोपरांत उसकी अन्त्येष्टि का लोकाचार पहले उसकी माँ के घर होकर फिर पत्नी के यहाँ होता है। शव को तीन दिन तक रखा जाता है। शव दाह के समय समस्त सगे- सम्बंधी चिता में आग लगाते हैं। इस समय मुर्गे की बलि भी दी जाती है। एक मान्यता के अनुसार वह मुर्गा आगे- आगे जाकर स्वर्ग का मार्ग दिखलाता है। अब समय थोड़ा बदल रहा है और सक्षम पुरुष अपना स्वयं का घर व व्यवसाय स्थापित कर अपनी पत्नी के साथ रहने लगे हैं। इस तरह वे दोनों घरों से अपना सामान्य संबंध बनाए रखते हैं।
जन जागरण एवं स्वाधीनता संग्राम में भी मेघालय की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। जयंतिया हिल्स के एक साधारण किसान कियांग नांगबाह अंग्रेजी हुकूमत के “करारोपण” का विरोध करते हुए शहीद हुए थे। जयंतिया समुदाय के तकरीबन 60 प्रतिशत लोग ईसाई धर्म अपना चुके हैं इसके बावजूद भी हिंदू धर्म इस समुदाय का दूसरा सबसे बड़ा धर्म है। यद्यपि इनके रहन-सहन पर ईसाईयत के नाते पश्चिमी प्रभाव बहुत है तथापि ये धार्मिक रूप से हिंदुत्व के बहुत निकट हैं। प्राकृतिक शक्तियों और अपने पूर्वजों की पूजा ये लोग हिंदुओं की तरह करते हैं। वार्षिक श्राद्ध भी करते हैं ये। स्वर्ग-नरक, आत्मा और पुनर्जन्म को ये भी पूरी निष्ठा से मानते हैं। भारी संख्या में धर्मांतरण के बावजूद हाजोंग, राभा और कोच समुदाय के लोग हिंदू धर्म में हृदय से आस्था रखते हैं। जिन परिवारों ने ईसाई धर्म अपना लिया है, वे गोमांस खाते हैं, इसके विपरीत परंपरागत परिवार गो मांस से परहेज करते हैं। इनके अधिकांश व्यंजन मांसाहारी होते हैं किंतु सोयाबीन से बना “तंगरीमबाई” एक शाकाहारी व्यंजन है। “बहदीनगलम” यहाँ का प्रमुख त्यौहार है। आश्चर्यजनक है कि हाजोंग समुदाय दुग्ध उत्पादन और दुग्ध उत्पादों का सेवन भी करता है। खनिजों से समृद्ध जयंतिया हिल्स में धान और सब्जियों की खेती भी बहुतायत होती है। छोटे-छोटे संतरों (कमला) के बगीचे और पाइन वूड से भी सम्पन्न है जयंतिया हिल्स।
व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए गाँव स्तर पर “हेडमैन” या गाँव प्रमुख चुना जाता है और क्षेत्रीय व्यवस्था के लिए “दोलोई” होता है। गाँव की सुरक्षा के लिए “संगोत” होता है। दोलोई की सहायता के लिए “पतोर” होता है।  दोलोई के आदेशों का पालन कराने के लिए “बसन” होता है। सामान्यतः न्याय व्यवस्था भी ये ही लोग देख लेते हैं। इस तरह से हम कह सकते हैं कि जयंतिया समुदाय साझी संस्कति, साझी विरासत और साझे धर्म को लेकर दूसरों से काफी अलग और यादगार है।
— डॉ अवधेश कुमार अवध

*डॉ. अवधेश कुमार अवध

नाम- डॉ अवधेश कुमार ‘अवध’ पिता- स्व0 शिव कुमार सिंह जन्मतिथि- 15/01/1974 पता- ग्राम व पोस्ट : मैढ़ी जिला- चन्दौली (उ. प्र.) सम्पर्क नं. 919862744237 [email protected] शिक्षा- स्नातकोत्तर: हिन्दी, अर्थशास्त्र बी. टेक. सिविल इंजीनियरिंग, बी. एड. डिप्लोमा: पत्रकारिता, इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग व्यवसाय- इंजीनियरिंग (मेघालय) प्रभारी- नारासणी साहित्य अकादमी, मेघालय सदस्य-पूर्वोत्तर हिन्दी साहित्य अकादमी प्रकाशन विवरण- विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन नियमित काव्य स्तम्भ- मासिक पत्र ‘निष्ठा’ अभिरुचि- साहित्य पाठ व सृजन