विधवाएँ आज भी अभिशप्त क्यूँ
क्यूँ सिर्फ़ औरतों के लिए हर परंपरा, हर नियम-धर्म पालने की परंपरा सदियों से दोहराई जा रही है? कल एक पढ़े लिखे परिवार के बेटे की शादी में जाना हुआ, मैंने देखा सुंदर सजावट और रंग-बिरंगी कपड़ों में सज-धज कर आए मेहमानों के बीच लड़के की बुआ रजनी जो दो साल पहले चालीस साल की उम्र में विधवा हुई थी; उनका पति एक एक्सीडेंट में गुज़र गया था वो अपनी बुढ़ी माँ की देखरेख करते उसके पास शांति से बैठी थी। न तन पर श्रृंगार, न चेहरे पर हँसी का ज़ेवर सिम्पल सी ऑफ़ व्हाईट साड़ी पहने छोटी उम्र में भी बुढ़ी लग रही थी। ऐसा लग रहा था मानों जी नहीं रही थी जबरदस्ती ज़िंदगी ढ़ो रही थी।
शादी में आए सारे लोग हँस बोल रहे थे, हर रस्मों का लुत्फ़ उठा रहे थे। लड़के की माँ बारी-बारी हर रस्म परिवार की औरतों के हाथों करवा रही थी और बार-बार अपनी ननद की तरफ़ ऐसी अनमनी नज़र से देख रही थी जैसे रजनी की उपस्थिति अखर रही हो। लड़के के पिता से अपनी बहन को नज़र अंदाज़ करना देखा नहीं गया तो अपनी पत्नी से बोले, सुधा सुनों, रजनी को भी किसी रस्म में शामिल करो, उनके हाथों से भी कोई रस्म करवाओ ताकि उसको बुरा न लगे: हमारे बेटे को आशीष देगी आख़िर बुआ है अंश की। उस पर सुधा भड़क उठी! ये क्या कह रहे है आप? आपकी तो मत मारी गई है मालूम है न रजनी विधवा है विधवा, उसके हाथों रस्म करवा कर अपने बेटे का अहित नहीं करवाना मुझे। अपने पति को ही खा गई वो मेरे बेटे को क्या आशीष देगी, आप महिलाओं की बातों में टाँग मत अड़ाईये सामाजिक रस्मों रिवाज़ भी कोई मायने रखते है, ऐसे ही हमारे बड़े बुज़ुर्गों ने नियम नहीं बनाए होंगे; मुझे उन बंदीशों को नहीं तोड़ना मेरे बेटे की ज़िंदगी का सवाल है जाईये जाकर अपना काम देखिए। उस पर वहाँ खड़ी तीन चार महिलाओं ने भी सुधा का समर्थन करते हाँ मेें हाँ मिलाई तब मुझे ताज्जुब हुआ कि लोग गलत नहीं कहते कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है।
रजनी के विधवा होने में उसकी क्या गलती? पति को खा गई से क्या मतलब, क्या वो खुद ऐसा बेरंग जीवन चाहती होगी, क्या जान बूझ कर विधवा हुई वो? क्या विधवा होने के बाद वो इंसान नहीं रही, विधवा के शौक़ मर जाते है क्या? उसे जीने का, खुशियाँ मनाने का कोई अधिकार क्यूँ नहीं? क्यूँ वो कोई सामाजिक रस्मों का हिस्सा नहीं बन सकती? कौनसा पहाड़ टूट पड़ेगा। शगुन, अपशगुन तो परिस्थितियों पर निर्माण होता है किसी विधवा से उसका क्या वास्ता? क्यूँ स्त्री ही स्त्री का पक्ष लेकर समाज में फैली कुरीतियों को बदलने का प्रयास नहीं करती। क्यूँ विधवाओं को ये स्त्रियाँ ही ये एहसास दिलाती है कि तू अब ज़िंदगी जीने के लायक नहीं।
पति की मौत होने के बाद छह महीने तक मुँह ढंक कर रखना पड़ता है, रंगीन कपड़े नहीं पहन सकती, रातों रात उनकी जिन्दगी नारकीय बना दी जाती है। अब तो मानसिकता बदलो। स्त्रियों अपनी सोच बदलो तभी समाज बदलेगा।
क्यूँ किसी मर्द को उनकी पत्नी के गुज़र जाने के बाद कोई नियम-धर्म लागू नहीं होते? विधूर को तो कोई ये नहीं कहता कि आप किसी सामाजिक कार्यक्रम का हिस्सा नहीं बन सकते। ये नहीं कर सकते, वो नहीं कर सकते। जोड़ी तो उनकी भी खंड़ित हुई है, वो भी तो अकेला रह गया है। क्यूँ पत्नी के गुज़र जाने के बाद मर्द को सिर्फ़ सफ़ेद कपड़े पहनने की बजाय कोई भी रंग पहनने की छूट है? मर्दों के लिए सारे दरवाज़े खुले और औरतों के हिस्से सिर्फ़ सहना आया है।
इक्कीसवीं सदी की दहलीज़ पर खड़े है हम, आधुनिक युग में जी रहे है फिर आज भी सोच क्यूँ अठारहवीं सदी वाली लिए घूमते है? विधवा भी इंसान है, कोई अपशगुन नहीं होता हर क्रिया हर रस्म उनके हाथों करवाईये, दिल से दुआ देगी। वैसे भी पति की मृत्यु के बाद आहत और अकेलेपन का शिकार होती है अधमरी को और मत मारिए, जीने का हक दीजिए, आज़ादी दीजिए अपने बराबरी का स्थान दीजिए वापस जी उठेगी। भारत में आज भी सिर्फ़ पिछड़े वर्ग में ही नहीं, पढ़े लिखे समझदार वर्ग में भी कई जगहों पर विधवा महिलाएँ अभिशप्त जीवन जीने को विवश है, उन्हें मनहूस माना जाता है ये समाज को कलंकित करने वाली सबसे बड़ी कुप्रथा, दूषण और घटिया मानसिकता है जिसे स्त्रियाँ ही एक दूसरे का साथ देकर, एकजुट होकर मिटा सकती है।
— भावना ठाकर ‘भावु’