आओ लौट चले अपने गाँव की ओर
आ अब लौट चलें
अपने गांव की ओर
जहाँ है अभी मासूमियत
नहीं है ठगा ठौरी धोखेबाजी
अपनी मिट्टी अपने लोग
है उनमें परस्पर अपनापन
गाँव के बीच बहती नदी
नदी में मदमस्त हो कूदना
प्रकृति का भरपूर प्यार
माँ का मिलता दुलार
स्कूल जाते राह में रूकना
मास्टर जी की लम्बी छड़ी
मुर्गा बनने की आती घड़ी
रद्दी बेच कुचालू खाना
पिता जी की सजा पाना
मुट्ठीभर गुड़ सने भूने दाने
किराये का साइकिल चलाना
गिरना फिर खुद उठ खड़ना
बचा है अभी वहाँ अपनापन
चकनाचूर हो गए सब सपने
महानगर में कौन हैं अपने ?
सुबह से शाम बनकर मशीन
नहीं मिलती दो जून की रोटी
महानगरीय संसार के लोग
संवेदनहीन इन्सानियत भूल
चुभाते रहते सीने में शूल
विवशतावश या कोई बड़ा सपना
खींच लाया हमें स्वार्थमय नगर की ओर
यहाँ तो चल रहा मंदी का दौर
आओ लौट चले अपने गाँव की ओर
जहाँ भ्रातृत्व की प्रतिछाया है हर मोड़
— वीरेन्द्र शर्मा वात्स्यायन