चांद ज़रा सा घटता रहा
चक्र समय का चलता रहा,
चांद जरा सा घटता रहा,
तारों से अठखेलियां करके,
छुपमछुपाई खेलकर रमता रहा.
सूर्य से रोशनी लेकर वह,
जग को रोशन करता रहा,
पूर्ण रहने की कोशिश में,
बढ़ता रहा घटता रहा.
शुक्लपक्ष में इतराकर ,
बच्चों की तरह मचलता रहा,
बच्चों का चंदामामा बनकर,
टॉफी-चॉकलेट-पूए बांटता रहा.
मधुरस से आप्लावित करता रहा,
शीतलता को फैलाता रहा,
जाने क्या सूझी निगोड़े चांद को,
प्रेमियों को मगर जलाता रहा!
अमावस्या की रात्रि में भी,
अपने होने का एहसास कराता रहा,
सोलह कलाओं से संपूर्ण हो वह,
पूर्णिमा पर खुश हो हर्षाता रहा.