कविता

पतझड़

कल तक तेरा साथ था मेरा
कुदरत ने क्या खेल खेलाया
जुदा हो चले हम तुमसे डाली
पतझड़ ने रिश्ता    तुड़वाया

कल तक हम तेरे साथ चले थे
पर जब मेरी उम्र हुई       पुरी
पीला पड़ गया चेहरा था मेरा
ख्वाब अब तक रह गई अधूरी

मौसम की हाथ कैसा निर्दयी है
जब तक हरा थे हमें   सॅवारा
जब मतलब पुरी हो गई   तब
दुत्कार कर हमें किया किनारा

तोड़ लिया सब नाते रिश्ते
जब नई कपोल तरू पे आया
तुम्हें मुबारक ये बसंत का मौसम
हम अब हो गये यहाँ बेसहारा

हमको याद कभी ना तुम करना
ऋतुराज मुबारक तुमको है भाई
आँसू मेरे जब सूख जाये    तब
बहुत याद आओंगे मेरे     साईं

जग की रीत है अजब निराली
मतलब से होते हैं हर     काम
मतलब जब निकल जाता है
बुढ़े हो जाते हैं जग में तमाम

कोई किसी का ना है जग में
मोह माया का जग है     धाम
जिन्दगी की है यही फिलास्फी
भूल जाते है कुर्वानी   तमाम

नई उमंग की स्वागत करता है
भूल जाते है किस्से वो पुराने
नई साथी तब प्यारा लगता है
बेकार की है रिश्ते यहाँ सारे

पतझड़ के बाद खुशियाँ लायेगी
जीवन में हर पल जीत की सौगात
फिजां में जब कलियाँ महकेगी
खुशी खुशी तब होगी हर रात

— उदय किशोर साह

उदय किशोर साह

पत्रकार, दैनिक भास्कर जयपुर बाँका मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार मो.-9546115088