ग़ज़ल
छोड़ चुकी है चार दिवारी।
आगे बढ़ती अब की नारी।
लगती है जब ज़र्ब करारी।
दुश्मन माने तब ही हारी।
भारत वर्ष सभी हैं कहते,
ये धरती है सब से न्यारी।
अपनीकरनी का होश नहीं,
देती फिरती सब को गारी।
तेवर उसके ढीले ढाले,
जबसे आयी विपदा भारी।
— हमीद कानपुरी