कविता

ऐसा ही तो जीवन होता

 

न हवा चली,न धरा हिली

न आँधी न तूफान ही आया

न बिजली कड़की, न ही ज्वालामुखी फटा

और न ही वारिश ही हुई

न ही बादल फटना

तब क्यों गिर गया अचानक

वो विशाल वटवृक्ष

जिसकी छाया तले मैं खुद को

हर वक्त सुरक्षित महसूस करता था

हर स्थिति परिस्थिति में निश्चिंत रहता था।

फिर अचानक जैसे सब कुछ लुटगया

और मैं खुले आसमान के नीचे आ गया,

इस धरा पर मैं रेगिस्तान जैसा हो गया।

चारों ओर जहां तक जाती हैं मेरी नज़र

सब सूना सूना सा लगता

उम्मीद की किरण कहीं नहीं दिखती

आसपास मरघट सा दिखता।

मैं समझकर भी समझ नहीं पाता

क्या करुं अब कुछ समझ नहीं पाता।

प्रकति की ये कैसी लीला है

हरियाली की जगह बंजर सा दिखता है।

पर यही तो विडंबना है जीवन की

मरने वाले को बिसारना ही पड़ता है

जीवन पथ पर आगे बढ़ना ही पड़ता है।

हम,आप ही नहीं हर प्राणी इस दौर से गुजरता है

तत्क्षण मर जाना चाहता है

परंतु मरता भला कौन है?

अल्प समय दीन हीन, असहाय सा महसूस करता

सामाजिक धार्मिक मान्यताओं की पूर्ति करते हुए

खुद को मजबूत करता

फिर स्वयं एक वटवृक्ष बनने की दिशा में लग जाता

अपने आगे के जीवन पथ पर

निश्चिंतता के साथ आगे बढ़ जाता

तब लगता है कि जैसे

ढह चुका वटवृक्ष

किसी इतिहास का हिस्सा जैसा लगता

ऐसा ही तो जीवन होता।

जिसे हर कोई आत्मसात करता।

 

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921