कविता – आदमी खो गया है
आदमी के भीड़ में आदमी खो गया है
है कौन वह जानना मुश्किल हो गया है
यहाँ दिल भी कहाँ किसी का मिलता है
इसलिए अपना भी अनजाना हो गया है।
यह आदमी कितना लापरवाह हो गया है
अपनों से जुदा–जुदा बेपरवाह हो गया है
किसे कहें अपना हम, बेरहम जमाने से
कभी अपना था वह भी पराया हो गया है।
आदमी से आदमी अब मतलबी हो गया है
आदमियत खत्म हुई,वह आदम हो गया है
यहां कहां कैसे ? ढूंढे उस भले को भीड़ में
जहां तमाम मंजर बेसूरत सा हो गया है।
यहां तो नाता-रिश्ता भी बेजुबान हो गया है
दिलों का रिश्ता भी अपमानित हो गया है
अपनापन जताएं तो अब किसके सामने
यह आदमी ही तो अब बेईमान हो गया है।
— अशोक पटेल “आशु”