गीतिका
यार बनके जो’ भूल जाते हैं।
बाख़ुदा याद रोज आते हैं।
कोई’ वादा नहीं हुआ फिर भी।
राह में फूल हम बिछाते हैं।
आख़िरी ख़्वाब आख़िरी चाहत।
दफ़्न सीने में’ गुनगुनाते हैं।
वो नदी की तरह दिखें सबको।
सिसिकियाँ तह में जो दबाते हैं ।
ज़ीस्त ये इश्क़ में लगायी तो।
कब्र तक पाँव लड़खड़ाते हैं।
डूब जाऊँ न डूबकर उनमें।
सोच कर आँख वो चुराते हैं।
आज सब कुछ निवेदिता कह दो।
कौन सी रौ गज़ल सुनाते हैं।
— निवेदिता श्री