कविता

इंद्रधनुषी सा गगन हो

इंद्रधनुषी सा गगन हो
अप्सराएं भी मगन हो
तप्त हिय की मरुभूमि पर
नेह से सिंचित लग्न हो
वीथियाँ जब भी हृदय की
भाव से तुझको पुकारे
हो रहा स्वागत तुम्हारा
है सदा ही नीरव
शुचि प्रणय
प्रियतम कब तलक
ये साथ अपना
दामिनी सम शुद्ध कंचन
तेज तेरी रूप काया
ओज,गन्ध,शब्द,सुंदर होके
जब भी मन पुकारा
हो रहा स्वागत तुम्हारा
रूधिर बन के धमनियों में
प्राण बन के बह रहे हो
मौन होकर गूढ़ता यूँ नयन से
तुम कह रहे हो
दिल को हमने लौ बनाया   
प्रेम पुष्पों से नहाया
गुँज उठता त्रिभुवन सारा
हो रहा स्वागत तुम्हारा
प्राची भी उन्मुक्त होकर
कर रही कुछ तो उजाला
चन्दमा का रूप सादर हो रहा
प्रस्फुटित तारा
रागिनी भी कुछ लजाई
देखती एकटुक तुम्हे
चन्द्रिकाये कर रही
नवसृजन सा स्वप्न सारा
हो रहा स्वागत तुम्हारा
है प्रणय का राह दुष्कर
राह पथरीला हुआ
धरा के उस छोर से सूर्य की
स्वर्णिम प्रभा तक
खिंच दो कुछ एक सी लकीरें
भाग्यरेखाएं हमारी साथ
देंगी क्या सहारा

— क्षमा श्रीवास्तवा

क्षमा श्रीवास्तवा

देवरिया,उत्तर प्रदेश