गीत “प्यार के परिवेश की सूखी धरा”
होश गुम हैं, जोश है मन में भरा।
प्यार के परिवेश की सूखी धरा।।
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चल पड़ा है दौर कैसा, हर बशर मगरूर है,
आदमी की आदमीयत आज चकनाचूर है,
हाट में मिलता नहीं सोना खरा।
प्यार के परिवेश की सूखी धरा।।
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खो गया है गाँव का वातावरण,
हो गया दूषित शहर का आवरण,
जी रहा इंसान होकर अधमरा।
प्यार के परिवेश की सूखी धरा।।
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अब नहीं मासूम लगता कोई बालक,
हो गया मजबूर जग को आज पालक,
मिट गया है जिन्दगी का आसरा।
प्यार के परिवेश की सूखी धरा।।
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लाज का बदला हुआ पर्याय है,
वासना का अब शरू अध्याय है,
गीत ने पहना रुपहला घाघरा।
प्यार के परिवेश की सूखी धरा।।
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लीलता ऋतुराज को अब कौन है,
कोकिला मधुमास में भी मौन है,
हो गया है ज्ञान कितना बावरा।
प्यार के परिवेश की सूखी धरा।।
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)