कविता
जब भी प्रेम से सराबोर हम खुद को पाते हैं
जब इस अनमोल भाव को कह नहीं पाते हैं
बिन कहे प्रेम का रस सभी पर यूँ बरसाते हैं
तब हम में कहीं न कहीं श्रीहरि ही समाते हैं
जब हम अपनी वाणी से सभी को लुभाते हैं
कुछ चंचलता दिखा कर,बचपना झलकाते हैं
सभी को अपनी मुस्कान से,अपना बनाते हैं
तब हम में कहीं न कहीं श्री कृष्ण समाते हैं
जब बचपन में,माँ को अटखेलिया दिखाते हैं
अपनी शैतानियों के चर्चे,चारों ओर करवाते हैं
चोरी छिपे दूध दही और माखन खा जाते हैं
तब हम में कहीं न कहीं नंद गोपाल समाते हैं
जब दुखों को हर के,चेहरे पे मुस्कान खिलाते हैं
ऊंच नीच का न कर भेद,सुदामा को अपनाते हैं
अन्याय को न्याय के मार्ग पर जब हम लाते हैं
तब हम में कहीं न कहीं श्री माधव ही समाते हैं
जब हो बुराई चारों ओर और दानव राज करते हैं
लाचारी व परेशानी से जब लोग त्रस्त हो जाते हैं
बुराई को दूर कर देने का जब बीड़ा हम उठाते हैं
तब हम में कहीं न कहीं द्वारकाधीश ही समाते हैं
— आशीष शर्मा ‘अमृत’