गीत “मन के जरा विकार हरो”
देता है ऋतुराज निमन्त्रण,
तन-मन का शृंगार करो।
पतझड़ की मारी बगिया में,
फिर से नवल निखार भरो।।
नये पंख पक्षी पाते हैं,
नवपल्लव वृक्षों में आते,
आँगन-उपवन, तन-मन सबके,
वासन्ती होकर मुस्काते,
स्नेह और श्रद्धा-आशा के
दीपों का आधार धरो।
पतझड़ की मारी बगिया में,
फिर से नवल निखार भरो।।
मन के हारे हार और
मन के जीते ही जीत यहाँ,
नजर उठा करके तो देखो,
बुला रही है प्रीत यहाँ,
उड़ने को उन्मुक्त गगन है,
मन के जरा विकार हरो।
पतझड़ की मारी बगिया में,
फिर से नवल निखार भरो।।
धर्म-अर्थ और काम-मोक्ष के,
लिए मिला यह जीवन है,
मैल हटाओ, द्वेश मिटाओ,
निर्मल तन में निर्मल मन है,
दीन-दुखी को गले लगाओ,
समता का व्यवहार करो।
पतझड़ की मारी बगिया में,
फिर से नवल निखार भरो।।
— डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’