मंदिर की उदासी
बुजुर्ग महिला सरिता जी के लिए कोरोना नामुराद रोग सिद्ध हुआ. लाखों-करोड़ों लोग ठीक हो गए, पर सरिता जी का दुर्भाग्य ही कहिए, उनके पतिदेव कोरोना को हरा न सके.
हंसती-हंसाती सरिता जी के जीवन में शून्यता आ गई. यही शून्यता उनके लिए मौन और उदासी का कारण बन गई.
सरिता जी ही नहीं, उनकी सोसाइटी का मंदिर भी उदास हो गया. वही तो मंदिर की श्रद्धामयी हर्ता-कर्ता थीं. “मुखिया मुख सो चाहिए” की वे साकार प्रतिमा थीं. हर एक को मान-सम्मान देना, छोटी-से-छोटी औपचरिकता को प्रेम-विधिपूर्वक पूरा करना, हर श्रद्धालु को प्रेम से तिलक लगाकर आशीर्वादों से नवाजना, सबकी खुशी में खुश होना, नाचना-गाना, क्या नहीं करती थीं वे. उनकी चहक से मंदिर चहकता रहता था.
अब तो मंदिर जाना छूट ही गया! पर कब तक!
“आंटी जी, प्लीज आप मंदिर आइए, आपके बिना मंदिर मंदिर नहीं लगता!” बार-बार सबके अनुरोध पर आखिर उन्हें मंदिर आना शुरु करना ही पड़ा. उनके पीछे जैसे-तैसे मंदिर चल रहा था, अब तो मुखिया की वापसी हो गई न! मंदिर की चहक कुछ-कुछ लौट आई.
“आंटी जी, आजकल आप हमें तिलक क्यों नहीं लगातीं?” वे क्या जवाब देतीं! धर्म-समाज की मर्यादा वे भलीभांति जानती थीं.
“आंटी जी, प्लीज आप हमें तिलक लगाया कीजिए. आपके जैसा सौभाग्यशाली भला और कौन होगा! आपके बेटे-बहू आपके साथ रहते हैं, वरना आजकल तो मां-बाप बेटे-बहू के साथ रहते हैं!” धीरे-धीरे तिलक लगाना भी शुरु हो गया.
“आंटी जी, चुप्पी आपको जरा भी नहीं सुहाती, पहले जैसे गाइए-नाचिए!” सीमा की वैवाहिक वर्षगांठ थी, सो उसने पकड़कर दो-चार ठुमके लगवा दिए. यही ठुमके धीरे-धीरे नाचने में बदलते गए.
मंदिर की उदासी के बादल छट गए थे, चहक-महक लौट आई थी.
— लीला तिवानी