सप्तरंगी
इंद्रचाप के सप्त रंग निज, मर्यादा में रहते हैं,
तभी सुशोभित होते-मोहते, नील गगन में रहते हैं.
सप्ताह के सप्त दिवस-रंग, मर्यादा में रहते हैं,
तभी सुशोभित होते-मोहते, अमर जगत में रहते हैं.
संगीतम के सप्त सुर-रंग भी, मर्यादा में रहते हैं,
उचित जगह स्वर उचित लगाकर, मन-मंदिर में बसते हैं.
आत्मा के सप्त गुण-रंग, मर्यादा में रहते हैं,
प्रेम, शांति, आनंदादि से, आत्म स्वरूप में बसते हैं.
जीवन के सप्त अवगुण-रंग, मर्यादा को छोड़ते हैं,
हिंसा-क्रोध, द्वेष-लोभादिक, देश-समाज-घर तोड़ते हैं.
सूर्य देव के सप्त अश्व-रंग, मर्यादा में रहते हैं,
मानव के विकार जब बढ़ते, विवश हो चाल बदलते हैं.
होली के सप्त सजीले रंग भी, मर्यादा में रहते हैं,
उनमें जब कालिख घुल जाए, काल रूप हो रहते हैं.
मर्यादा सर्वाधिक श्रेष्ठ रंग है, मर्यादा को मत छोड़ो,
भेदभाव की कारा तोड़ो, देश-समाज-घर-जग जोड़ो.
— लीला तिवानी