कविता

सप्तरंगी

इंद्रचाप के सप्त रंग निज, मर्यादा में रहते हैं,
तभी सुशोभित होते-मोहते, नील गगन में रहते हैं.

सप्ताह के सप्त दिवस-रंग, मर्यादा में रहते हैं,
तभी सुशोभित होते-मोहते, अमर जगत में रहते हैं.

संगीतम के सप्त सुर-रंग भी, मर्यादा में रहते हैं,
उचित जगह स्वर उचित लगाकर, मन-मंदिर में बसते हैं.

आत्मा के सप्त गुण-रंग, मर्यादा में रहते हैं,
प्रेम, शांति, आनंदादि से, आत्म स्वरूप में बसते हैं.

जीवन के सप्त अवगुण-रंग, मर्यादा को छोड़ते हैं,
हिंसा-क्रोध, द्वेष-लोभादिक, देश-समाज-घर तोड़ते हैं.

सूर्य देव के सप्त अश्व-रंग, मर्यादा में रहते हैं,
मानव के विकार जब बढ़ते, विवश हो चाल बदलते हैं.

होली के सप्त सजीले रंग भी, मर्यादा में रहते हैं,
उनमें जब कालिख घुल जाए, काल रूप हो रहते हैं.

मर्यादा सर्वाधिक श्रेष्ठ रंग है, मर्यादा को मत छोड़ो,
भेदभाव की कारा तोड़ो, देश-समाज-घर-जग जोड़ो.

— लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244