चाहिए
आदमी हूँ, मुझे और क्या चाहिए।
आदमी से ज़रा सी वफ़ा चाहिए।
लोग ख़ुदगर्ज़ हैं, जानता हूँ मगर,
इक भले आदमी का पता चाहिए।
भीड़ ही भीड़ के इस बियाबान में,
थाम ले हाथ, ऐसा सगा चाहिए।
कौन है जो परेशां नहीं इन दिनों,
दर्द की हर बशर को दवा चाहिए।
ऐ खुदा, है नशे की इजाज़त अगर,
सिर्फ़ ईमान वाला नशा चाहिए।
और कुछ आदमी ने पढ़ा हो, न हो,
फ़लसफ़ा-ए-मुहब्बत पढ़ा चाहिए।
मंज़िलों ने सदा ख़ैर-मक्दम किया,
कारवाँ रास्तों पर बढ़ा चाहिए।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’