प्रकृति के साथ खिलवाड़
प्रकृति के साथ मत कर र्दुव्यवहार
किस बात की करता है अधिकार
मत रोक प्रकृति की उनकी रफ्तार
मत बन खलनायक रे कर्णधार
नदी की बहती जल को बहने देना
धारा को ना कभी रूकने देना
बाँध बना कर रोकना है अत्याचार
प्रकृति की गरिमा समझो संसार
जिनका जो चलन है चलने देना
हवा नदी को तदैव बहने ही देना
रब ने रची है जैसी जगत सहचार
मत डाल उनपर तुम अपनी विचार
जब जब प्रकृति को मानव छेड़ा
उस कुदरत की नैन हुई टेढ़ा
बहते धारा को हर्गिज ना रोकना
आफत में है खुद को। डालना
बाँध बनाकर प्रवाह को है रोका
बाढ़ की विभिषिका का है डेरा
वर्षा के दिन गॉव घर है डूबा
पहाड़ पर्वत का रोद्र रूप ना छोड़ा
प्रकृति के साथ जब जब छेड़ा
गर्क में डूबा है जन जन का बेड़ा
विकास के नाम पर बंद हो दोहन
पहाड़ पर्वत है हमारा मन मोहन
— उदय किशोर साह