स्वास्थ्य

बिना दवा मधुमेह का प्रभावशाली उपचार

मधुमेह का कारणः-
शरीर को स्वस्थ रखने एवं समुचित विकास हेतु भोजन में अन्य तत्त्वों के साथ संतुलित प्रोटीन, वसा तथा कार्बोहाइट्रेड आदि तत्त्वों की विषेश आवष्यकता होती है। जब इनमें से कोई भी या सारे तत्त्व शरीर को संतुलित मात्रा में भोजन में नहीं मिलते अथवा शरीर उन्हें पाचन के पष्चात् पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं कर पाता तो शरीर में विविध रोग होने लगते हैं। इंसुलिन की कमी के कारण जब शरीर कार्बोहाइट्रेड को ग्लूकोज के रूप में अपने अन्दर नहीं समा सकता तथा उसका भलीभांति उपयोग नहीं कर पाता तो मधुमेह का रोग हो जाता है। मानसिक तनाव, शारीरिक श्रम का अभाव, गलत खान-पान अथवा पाचन के नियमों का पालन न करने से और अप्राकृतिक जीवन शैली इस रोग के मुख्य कारण होते हैं। कभी-कभी यह रोग वंषानुगत भी होता है।
मधुमेह क्या है?
शरीर में पेंक्रियाज एक दोहरी ग्रन्थि होती है जो पाचन हेतु पाचक रस और इंसुलिन नामक हारमोन्स को पैदा करती है। इंसुलिन भोजन में से कार्बोहाइड्रेट्स का पाचन कर उसको ग्लूकोज में बदलती है। कोषिकाएँ ग्लूकोज के रूप में ही पोश्टिक तत्त्वों को ग्रहण कर सकती हैं, अन्य रूप में उनको शोशित नहीं कर सकती। इंसुलिन रक्त में ग्लूकोज की मात्रा का भी नियन्त्रण करती है। ग्लूकोज रक्त द्वारा सारे शरीर में जाता है तथा कोषिकाएँ उसको ग्रहण कर लेती हैं, जिससे उनको ताकत मिलती है। ग्लूकोज का कुछ भाग यकृत ग्लाइकोजिन में बदल कर अपने पास संचय कर लेता है, ताकि आवष्यकता पड़ने पर उसे पुनः ग्लूकोज में बदल कर कोषिकाओं के लिये उपयोगी बना सके। शरीर की स्वस्थ अवस्था में ग्लूकोज को शरीर के विभिन्न अंगों में वसा ;थ्ंजेद्ध अथवा चर्बी के रूप में भी रखा जा सकता है। पाचन तंत्र की गड़बड़ी के कारण अथवा भोजन में शर्करा की मात्रा ज्यादा होने के कारण, अधिक इंसुलिन की आवष्यकता होती है। कभी-कभी पेन्क्रियाज ग्रन्थि के बराबर कार्य न करने पर भी इंसुलिन की आवष्यक मात्रा का निर्माण नहीं होता।
इंसुलिन की कमी के कारण पाचन क्रिया के पष्चात् आवष्यक मात्रा में ग्लूकोज नहीं बनता और कार्बोहाइड्रेट्स तत्त्व शर्करा के रूप में ही रह जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप जिन-जिन कोषिकाओं को ग्लूकोज नहीं मिलता वे निश्क्रिय होने लगती हैं। उनकी कार्य क्षमता कम होने लगती है, जिससे प्रायः भूख और प्यास अधिक लगती है।
मधुमेह के दुश्परिणामः-
शरीर में लगातार अधिक शर्करा रहने से अनेक जैविक क्रियाएँ प्रभावित हो सकती हैं। अधिक मीठे रक्त से रक्त वाहिनियों की दीवारें मोटी हो जाती हैं और उसका लचीलापन कम होने लगता है। रक्त का प्रवाह बाधित हो सकता है। जब यह स्थिति हृदय में होती है तो हृदयघात और मस्तिश्क में होने पर पक्षाघात हो सकता है। पिण्डलियों में होने पर वहां भयंकर दर्द तथा प्रजनन अंगों पर होने से प्रजनन क्षमता प्रभावित हो सकती है।
रक्तवाहिनियों के बाधित प्रवाह से पैरों में संवेदनाओं में कमी आ सकती है तथा जाने अनजाने मामूली चोट भी घाव जल्दी न भरने के कारण गम्भीर रूप धारण कर सकती है। शरीर के सभी अंगों को क्षमता से अधिक कार्य करना पड़ सकता है, जिससे पैरों में कंपन, स्वभाव में चिड़चिड़ापन, तनाव आदि के लक्षण प्रकट हो सकते हैं। संक्षेप में प्रभावित कोषिकाओं से संबंधित रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।
शरीर में इंसुलिन की आवष्यकता को कैसे नियन्त्रित किया जा सकता है?
मधुमेह का रोग शरीर में पेंक्रियाज ग्रन्थि के बराबर कार्य न करने से होता है। परन्तु पेंन्क्रियाज बराबर कार्य क्यों नहीं करता? क्या वास्तव में पेंक्रियाज इंसुलिन कम बनाता है? क्या जो इंसुलिन बनता है उसका हम पूर्ण सदुपयोग करते हैं? कहीं तनाव अथवा अप्राकृतिक जीवन शैली तथा पाचन के नियमों का पालन न करने से हमें आवष्यकता से अधिक मात्रा में इंसुलिन की आवष्यकता तो नहीं होती है?
पेंक्रियाज रोग ग्रस्त क्यों होता है? उसके रोग ग्रस्त होने से कौन से अंग अथवा अवयव प्रभावित होते हैं? पेंक्रियाज के कार्य को सहयोग देने वाले शरीर में कौन-कौन से अंग, उपांग, ग्रन्थियाँ और तंत्र होते हैं? पेंक्रियाज की क्षमता को कैसे बढ़ाया जा सकता है? यदि इन अंगों को सक्रिय कर दिया जाये तथा पेन्क्रियाज की कार्य क्षमता बढ़ा दी जाए, पाचन में इंसुलिन का जो अनावष्यक दुरुपयोग करते हैं अर्थात् जो कार्य बिना इंसुलिन अन्य अवयवों द्वारा किए जा सकते हैं, कराये जाये तो समस्या का समाधान हो सकता है।
आधुनिक चिकित्सक मधुमेह को असाध्य रोग मानते हैं परन्तु उनका कथन शत-प्रतिषत ठीक नहीं होता है। मात्र पेंक्रियाज द्वारा पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन न बना सकने के कारण बाहर से इंसुलिन देना समस्या का सही समाधान नहीं हो सकता? यह तो फूटे घड़े में बिना छिद्र को बंद किये पानी भरने के समान अथवा वृक्ष को सुरक्षित रखने के लिए फल पत्तों पर पानी देेने के समान अदूरदर्षिता पूर्ण आचरण होता है। जिस प्रकार वृक्ष की सुरक्षा हेतु उसकी जड़ों में पानी देना आवष्यक होता है, ठीक उसी प्रकार पेंक्रियाज द्वारा इंसुलिन अथवा पाचक रस न बनाने अथवा कम बनाने के कारणों को दूर कर तथा इंसुलिन की आवष्यकता कम कर उसके सहयोगी अंगों से तालमेल एवं सहयोग लेकर मधुमेह को नियन्त्रित रखा जा सकता है। उसके दुश्प्रभावों से बचा जा सकता है। अतः जो मधुमेह से बचना चाहें, उन्हें निम्न बातों का विषेश पालन करना चाहिए।
शरीर में अधिकांष कार्यो की वैकल्पिक व्यवस्था होती हैः-
शरीर में कोई अंग, उपांग, अवयव पूर्ण रूप से अकेला कार्य नहीं करता। उसके कार्य में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से शरीर का कोई न कोई अन्य अवयव अवष्य सहयोग करता है। उसके आंषिक विकल्प के रूप में कार्य करता है। शरीर में पेंक्रियाज एक अन्तःस्रावी ग्रन्थि है। सारी ग्रन्थियाँ सामूहिक जिम्मेदारी, तालमेल और आपसी समन्वय से कार्य करती हैं। अतः पेन्क्रियाज की गड़बड़ी होने पर अन्य ग्रन्थियों को अधिक कार्य करना पड़ता है। अतः यदि किसी विधि द्वारा पेंक्रियाज के साथ-साथ अन्य ग्रन्थियों को सक्रिय कर दिया जाये तो मधुमेह से मुक्ति मिल सकती है। चीनी पंचतत्त्व के सिद्धान्तानुसार पेंक्रियाज, तिल्ली-आमाषय परिवार का सदस्य होता है। अर्थात् पेंक्रियाज की गड़बड़ी का तिल्ली पर सीधा प्रभाव पड़ता है। अतः यदि तिल्ली बियोल मेरेडियन में किसी विधि द्वारा प्राणऊर्जा का प्रवाह बढ़ा दिया जाये तो पेन्क्रियाज की कार्य क्षमता ठीक हो सकती है।
तिल्ली का आमाषय पूरक (यांग) अंग होता है। अतः पंेक्रियाज के बराबर कार्य न करने से तिल्ली-आमाषय का संतुलन बिगड़ जाता है। पाचन तंत्र बराबर कार्य नहीं करता। अतः पाचन के नियमों का दृढ़ता से पालन कर पाचन तंत्र की कार्य प्रणाली सुधारी जा सकती है जिससे पाचन हेतु अधिक इंसुलिन की आवष्यकता नहीं पड़ती।
हृदय, तिल्ली का मातृ अंग होता है और फेफड़ा पुत्र अंग। तिल्ली, यकृत से नियन्त्रित होती है और गुर्दो को नियन्त्रित करती है। अतः पेंक्रियाज के बराबर कार्य न करने से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हृदय, फेफड़े, गुर्दे, यकृत आदि भी प्रभावित हो सकते हैं, जिसका प्रभाव उनके पूरक (यांग) अंगों छोटी आंत, बड़ी आंत, मूत्राषय और पित्ताषय पर भी पड़ सकता है। जो अंग जितना-जितना असक्रिय होता है, उसी के अनुपात में उससे संबंधित रोगों के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। इसी कारण सभी मधुमेह के रोगियों के बाह्य लक्षण एक जैसे नहीं होते।
किसी को भूख और प्यास अधिक लगती है, तो किसी को अधिक पेषाब। किसी की त्वचा खुष्क एवं खुरदरी हो जाती है या चर्म रोग होते हैं तो किसी के बाल झड़ने लगते हैं। किसी में यकृत, गुर्दो, हृदय या फेफड़ों संबंधित रोगों के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। यदि लक्षणों के आधार पर संबंधित अंगों में प्राणऊर्जा के प्रवाह को बियोल ऊर्जा संतुलन पद्धति द्वारा संतुलित कर दिया जाये तो असाध्य समझा जाने वाला मधुमेह चंद दिनों में ही बिना दवा ठीक किया जा सकता है। अतः सभी मधुमेह के रोगियों के लिये एक जैसा उपचार कैसे संभव हो सकता है?
मधुमेह से मुक्ति हेतु पाचन तंत्र के नियमों का पालन आवष्यक
करोड़पति पिता का पुत्र यदि व्यर्थ धन का अपव्यय करे तो अधिक परेषानी नहीं होती परन्तु उसकी देखा-देखी उसका गरीब मित्र भी धन का अपव्यय करने लगे तो उसको कठिनाई हो सकती है। इंसुलिन का कार्य भोजन के पाचन में सहयोग करना होता है। अतः मधुमेह का रोगी यदि पाचन के नियमों का दृढ़ता से पालन करे एवं उपलब्ध सीमित इंसुलिन की मात्रा का सही उपयोग करे तो इंसुलिन की कमी से होने वाले दुश्प्रभावों से सहज बचा जा सकता है।
सही समय पर भोजन करेंः- जब प्रकृति से आमाषय और पेंक्रियाज/तिल्ली समूह में अधिकतम प्राण ऊर्जा का प्रवाह हो, अर्थात् जब वे दिन में सर्वाधिक सक्रिय हों, उस समय मधुमेह के रोगियों को अपना मुख्य भोजन अवष्य कर लेना चाहिए, ताकि उसका सहजता से पाचन हो सके।
पाचन के नियमों का पालन करेंः-
दूसरी बात, मधुमेह के रोगियों को भोजन तनाव रहित वातावरण में धीरे-धीरे चबा-चबा कर खाना चाहिए जिससे भोजन में थूक और लार मिलने से उसका आंषिक पाचन मुँह में ही सम्पन्न हो सके। आमाषय को पाचन हेतु अधिक ऊर्जा एवं इंसुलिन की आवष्यकता नहीं होती। चबा-चबा कर खाना खाना मधुमेह की सर्वोत्तम औशधि है। भोजन सूर्य स्वर में करने तथा भोजन के पष्चात् कुछ समय वज्रासन में बैठने से पाचन ठीक होता है। साथ ही भोजन करने के लगभग डेढ़ घंटे से दो घंटे तक जब तक पाचन की प्रारम्भिक क्रिया पूर्ण न हो जाये, पानी नहीं पीना चाहिए।
पाचन तंत्र को अनावष्यक क्रियाषील न रखेंः-
तीसरी बात- मधुमेह के रोगियों को बार-बार मुंह में कुछ डालकर पाचन तंत्र को हर समय क्रियाषील नहीं रखना चाहिए अन्यथा मुख्य भोजन के समय पाचन तंत्र पूर्ण क्षमता से कार्य नहीं करता है। सुबह का भोजन यथा संभव जल्दी एवं सायंकाल का भोजन सूर्यास्त के पूर्व कर लेना चाहिये, क्योंकि उसके पष्चात् आमाषय और पेंक्रियाज में प्रकृति से प्राण ऊर्जा का प्रवाह निम्नतम होता है। फलतः आवष्यक इंसुलिन उपलब्ध नहीं होता। यथा संभव दो बार से अधिक पाचन तंत्र को क्रियाषील नहीं करना चाहिए। प्रतिदिन एक समय भोजन करना तथा सप्ताह में एक बार उपवास मधुमेह के रोगियों के लिये बहुत लाभप्रद है।
भोजन में स्वाद का संतुलन रखेंः-
चौथी बात, भोजन में कड़वे स्वाद वाले पदार्थ जैसे करेला, दाणामेथी, नीम आदि का अधिक प्रयोग करना चाहिये, जिससे पाचन हेतु तापऊर्जा उपलब्ध हो सके। भोजन में मीठे पदार्थो का सेवन जितना कम कर सकें, करना चाहिये, ताकि उनको पचाने हेतु इंसुलिन की कम आवष्यकता पड़े।
सद्साहित्य का स्वाध्याय एवं सम्यक् चिन्तन करेंः-
तनाव, चिन्ता, भय तथा शारीरिक श्रम का अभाव मधुमेह का मुख्य कारण होता है। मधुमेह का रोगी किसी भी दृश्टि से शारीरिक अथवा मानसिक रूप से अपंग नहीं होता है। अतः उन्हें अपने चिन्तन की दिषा बदल जीवन शैली बदलनी चाहिए। संयमित, नियमित, अनुषासित दिनचर्या से वे जीवन के किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। मधुमेह के रोगियों को सद्-साहित्य का स्वाध्याय, आध्यात्मिक भजनों का गायन व श्रवण, ध्यान,मौन एवं सकारात्मक चिन्तन में समय व्यतीत करना चाहिए। सम्यक् चिन्तन ही मधुमेह का स्थायी उपचार होता है।
पेंक्रियाज को सषक्त बनाने के उपायः-
मधुमेह के अन्य प्रमुख कारण शारीरिक श्रम का अभाव, अप्राकृतिक जीवन शैली और गलत खानपान आदि होते हैं। व्यायाम, आसन, प्राणायाम तथा प्राकृतिक नियमों का यथासंभव पालन कर एवं इन्द्रिय संयम से उन पर नियन्त्रण रखा जा सकता है। मधुमेह के रोगी को अपने आपको अधिकाधिक व्यस्त रखना चाहिए। खुले बदन धूप सेवन से भी ऊर्जा मिलती है।
1. प्रातःकाल जल्दी उठ शांत वातावरण में चैतन्य चिकित्सा द्वारा तिल्ली-पेंक्रियाज पर दबाव के माध्यम से आवष्यक चेतना पहुँचानी चाहिए। जिससे तिल्ली और पेंक्रियाज शक्तिषाली होते हैं।
2. प्रतिदिन कुछ मिनटों के लिये लगातार मुस्कराने एवं खुलकर हँसने से शरीर में तनाव, भय, नकारात्मक सोच के कारण एकत्रित विजातीय तत्त्व विसर्जित होने लगते हैं।
3. मधुमेह के रोगियों का नाभि केन्द्र प्रायः विकार ग्रस्त हो जाता है। स्पन्दन केन्द्र में नहीं रहता। अतः नाभि केन्द्र को स्वस्थ रखना आवष्यक होता है। जब तक नाभि संतुलित न हो जाए, नियमित नाभि का का संतुलन करना चाहिए।
4. मधुमेह सम्बन्धी रोगियों को अपने पैरों, गर्दन और मेरुदण्ड का संतुलन नित्य परीक्षण कर ठीक रखना चाहिए।
5. पेंक्रियाज और तिल्ली डायाफ्राम के नीचे बांयीं तरफ शरीर में स्थित होते हैं। अतः वहां पर दाणा मैथी का स्पर्ष रखने से पेंक्रियाज की ताकत बढ़ती है।
6. प्रातःकाल उदित सूर्य को चन्द मिनटों तक देखना एवं उशापान से मधुमेह के रोगियों को बहुत लाभ होता है।
7. चुम्बक का सक्रिय दक्षिणी ध्रुव तिल्ली-पेक्रियाज पर आवष्यकतानुसार कुछ समय स्पर्ष करने से उसकी ताकत बढ़ती है।
8. सूर्यमुखी तेल के गंडूस से रक्त का शुद्धिकरण होता है, फलतः मधुमेह ठीक होता है।
9. मधुमेह के रोगी को प्राणमुद्रा एवं नमस्कारमुद्रा का अधिकाधिक अभ्यास करना चाहिए।
10. हथेली और पगथली में एक्युप्रेषर के सभी संवेदनषील प्रतिवेदन बिन्दुओं पर दबाव देना चाहिए, परन्तु पेंक्रियाज, तिल्ली, लीवर, गुर्दों तथा सभी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के मुख्य बिन्दुओं पर विषेश एकाग्रता पूर्वक एक्युप्रेषर करना चाहिए।
11. तिल्ली बियोल मेरेडियन में ऊर्जा का प्रवाह बढ़ाना चाहिए जिससे पेंक्रियाज में भी अधिक ऊर्जा पहुँचती है।
12. मधुमेह के रोगियों को कार्य के अनुरूप स्वर संचालन हेतु विषेश सजगता रखनी चाहिये।
13. रोगी को अपने स्वमूत्र का पान करना चाहिए, जिससे शरीर के अन्दर के सारे विकार दूर हो जाते हैं। प्रायः मधुमेह वालों को यह आषंका रहती है कि उनके मूत्र के साथ शर्करा का विसर्जन होता है, अतः उसको कैसे लिया जा सकता है? परन्तु षिवाम्बु चिकित्सा में रोगी का अपना षिवाम्बु ही उसके रोग की राम-बाण दवा होती है। षिवाम्बु का तर्कसंगत सद्-साहित्य पढ़ने से उसके प्रति मन की सारी भ्रान्तियाँ दूर हो जाती हैं। जिस प्रकार जौहरी ही रत्नों की पहचान कर सकता है, इंजीनियर आदि अन्य व्यक्ति नहीं। ठीक उसी प्रकार जैसी चिकित्सा करनी है, उसी के अनुभवी चिकित्सक का परामर्ष महत्त्वपूर्ण होता है, अन्य का नहीं।
14. मधुमेह के रोगियों के लिए पथ्य अपथ्य का विवेक औशधि एवं उपचारों से श्रेश्ठ होता है।
यदि उपर्युक्त नियमों की पालना की जाए तो मधुमेह जैसा असाध्य रोग चन्द दिनों में ही नियन्त्रण में आकर समाप्त हो जाता है।

— डॉ. चंचलमल चोरडिया

डॉ. चंचलमल चोरडिया

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