कविता

अंत:करण

अंत:करण यानी अंतर्मन से निकले
भावों की गूंज, स्वर, भाव
अक्सर हमें सुनाई नहीं देते
या हम जानबूझ कर
अनसुनी कर देते,अबूझ मान लेते हैं
या महज भ्रम अथवा बकवास मान लेते हैं।
अपने अंतस मन के संकेत नहीं समझते
खुद पर बड़ा घमंड करते और फिर पछताते हैं।
हमारी सोच और अंत:करण की सोच
आपस में उलझकर रह जाते हैं,
हम अपनी सोच को श्रेष्ठ समझते हैं
हम अपने बुद्धि विवेक का उपयोग कहां करते हैं
हम तो अहंकार में डूब रहते हैं
अंत:करण की आवाज नजर अंदाज कर देते हैं।
परिणामस्वरूप बहुत बार
गलत कदम उठा लेते हैं या
दुर्व्यवहार कर जाते हैं,
और दुष्परिणाम पाते हैं,
तब अंत:करण की स्वरों का ध्यान करते हैं
और पछताते हैं।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921