लेख

क्रोध:कितना जायज कितना नाजायज

मानवीय प्रवृत्तियों में एक प्रवृत्ति क्रोध भी शामिल है, जिसका दर्शन मानव समय,असमय कराता ही रहता है। जैसा कि मानव प्रवृत्ति है वह अपने गुणों अवगुणों का प्रकटीकरण करता ही रहता है। कभी जाने, कभी अनजाने। कभी जरूरत के अनुसार तो कभी उत्साह, अकड़ और कभी अख्खड़पन में।

मानव जीवन में हर समय हमारे अनुकूल ही सब कुछ हो या हमारी हर पसंद की स्थिति प्राप्त हों ऐसा भी होगा ही, ये असंभव है।
मगर मानवीय गुणों के अनुरूप ही ऐसा होता ही है कि जब कोई काम हमारे आप की पसंद का नहीं होता तो हम क्रोध करने लगते हैं, लाल पीले हो जाते हैं। अधिसंख्य लोगों के साथ ऐसा होता है। कुछ लोग तो अपने कद, पद, प्रतिष्ठा और श्रेष्ठता, ज्येष्ठता की आड़ में जरुरत न होने पर भी क्रोध को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर क्रोध करने को उतावले रहते हैं, वहीं कुछ लोग विवशतावश जायज क्रोध का घूंट पीने को विवश होकर क्रोध करने से बच जाते हैं।
क्रोध के नकारात्मक पक्षों का ज्ञान हम सबको है,
कहा भी जाता है कि क्रोध जानलेवा होता है, विनाश का कारक है, हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, विवाद बढ़ाता है, संबंधों में कांटे रोपता है, सरल समाधान के मार्ग में बाधक बनता है, हमारी सहन शक्ति को कमजोर करता है, मानसिक संतुलन प्रभावित करता है, हमारा खुद का खुद पर से ही नियंत्रण फिसलने लगता है हमारे अपने, अपने शुभचिंतकों से वंचित होना पड़ जाता है ।इन सारी बातों का हमें ज्ञान और अनुभव भी है और होता भी रहता है, फिर भी अधिसंख्य लोग इसके नकारात्मक पक्षों को किनारे कर क्रोध में उबल जाते हैं।
लेकिन क्रोध की समयानुसार आवश्यकता भी होती है,जब हमें क्रोध करना आवश्यक हो जाता है,जिसका प्रकटीकरण करना आवश्यक भी है और अनिवार्य भी।
लेकिन मनपसंद के आधार पर क्रोध को अनिवार्य मानना, करना ग़लत ही नहीं अव्यवहारिक भी है। क्योंकि हमारी पसंद नापसंद की स्थिति परिस्थितिजन्य होती है। जो हमेशा हमारे पसंद के अनुरूप नहीं होता, तो बहुत बार हमारे हाथ में भी उसकी डोर नहीं होती। ऐसे में हमें यथानुरुप स्थित के अनुरूप हमें खुद को ढालने की प्रवृत्ति की ओर बढ़ना ही श्रेयस्कर है। लेकिन जरुरी यह है कि क्रोध पसंद नापसंद को भूल उतना ही उचित है, जहां से हमारे लिए आसानी से ससम्मान वापसी का रास्ता बना रहे। न कि ऐसा कि अपने अनियंत्रित क्रोध के चक्कर में हम  बीच के सारे रास्ते खुद ही अवरुद्ध कर दें।
अंत में यही कहा जा सकता है कि क्रोध को अपना जन्मसिद्ध अधिकार न माने, समय परिस्थिति और उपयोगिता अनुपयोगिता के आधार पर ही क्रोध रुपी हथियार को अपने विवेक रुपी म्यान से बाहर निकालें। यही हम सबके लिए सर्वथा उचित है।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

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