कविता

तुलसी आज

क्यों में तुलसी तेरे आंगन की बनूं
मेरी अपनी महत्ता मैं ही तो जानूं
संग तेरे रहूंगी जीवन भर के लिए
प्यार भरी संगिनी बन कर तेरे लिए
अपनों को बाहर नहीं रखा करतें है
उन्हे दिल में रख पास पास बैठते हैं
बैठ पास गुफ्तुगु कर कामना जानते है
इश्क की कदर कर प्यार पहचानते हैं
तुलसी बन आंगन में खड़ी तुम्हे निहारूं
आते जाते साजन की राह मैं जिहारूं
कहां का प्यार तुमने दिया प्रभु वृंदा को
जिसे स्वीकार कर के भी अस्वीकार की
मैं तो तेरे चरणों में भी रह लूंगी सदा
कही दूर आंगन मेरा अब स्थान कहां
— जयश्री बिर्मि 

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।