एक मुलाकात (संस्मरण)
वाराणसी का प्रसिद्ध दशाश्वमेध घाट पर सुबह-ए-बनारस के सूर्योदय की छवि अपनी नेत्रों में समेटे हम स्वार्गिक आनन्द में खोये यूँ ही टहल रहे थे। शीतला घाट की सुबह-सुबह गंगा आरती से मन तन-मानों तृप्त सा हो गया था। सूर्योदय से पहले ही गंगा की उर्मियों में स्नान करके पवित्रता का भाव भक्त-गणों के मुख-मंडल पर सहज ही परिलक्षित हो रही थी। घंटा-घड़ियाल, जय माँ गंगा, ओम नमः शिवाय ओम सर्वत्र व्याप्त था मानों सारा वातावरण शिवामय हो गया था, मात्र प्रतीक्षा थी भास्कर की रश्मियों की। घाट की सीढ़ियों पर बैठे-बैठे कुछ देर हो गई थी। आकाश मेघों से आच्छादित था। मैं मन ही मन ‘ओम भास्कराय नमः” जपते हुए सूर्य देव से उदित होने की प्रार्थना कर रही थी। देखते ही देखते अंशुमाली अपनी पूर्ण सौन्दर्य के साथ अपनी कृपा बरसा रहे थे। गंगाजल को अंजलि में भर कर अर्घ्य दे आगे बढ़ी। तृप्त मन घाट के किनारे मसाले वाली लाल चाय की तलाश करने लगा।इतने में पीले रंग की खद्दर का कुर्ता पहने लगभग 30-35 वर्ष का चायवाले से कहा-भैया एक अच्छी सी चाय पिला दो। सहज मुस्कान के साथ उसने चाय दिया। चाय इतनी अच्छी थी कि मैंने दूसरा कप देने के लिए कहा। वह दूसरा कप निकाल कर चाय देने वाला था कि मैंने कहा – आप मेरे पहले वाले कप में ही दे दीजिए। उसने मेरा जूठा कप लेने के लिए हाथ बढ़ाया। मैंने कहा-भाई मेरा जूठा कप मत लो बस केटली से इसमें डाल दें। यह सुनकर उसने कहा-दीदी,आपलोग बड़े लोग हैं। आपका जूठा कप लेने में कैसा संकोच? आखिर जीव को अपने पूर्वजन्म के कर्मानुसार ही जीवन मिलता है और इसे स्वीकार कर लें तो जीना आसान हो जाता है। अरे ! भइया शरीर छोटा-बडा होता है, आत्मा तो एक ही है । यह सुनकर उसने कहा, आप जरूर स्कालर हैं तभी तो सोच में दर्शन है। आप भी तो केवल चायवाले नहीं है, मैंने पूछा। जी मै सुबह दस बजे तक चाय बेच कर पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करता है। शेष समय में नि:शुल्क संस्कृत की सेवा करता हूँ, जिससे हमारी संस्कृति बची रहे। मैं संस्कृत गोल्ड मैडलिस्ट हूँ। उससे हुई मुलाकात सूर्योदय के सौन्दर्य पर हावी हो गई।
— डाॅ अनीता पंडा अन्वी